संत कबीर के सबद का सार

संत कबीर के सबद का सार

  

कबीर के सबद् भी उतने ही सुंदर हैं, जितना कबीर का हृदय था। ये रचनाएँ हमें जीवन का वह ज्ञान प्रदान करती हैं, जो जान कर हम जीवन के यथार्थ से परिचित हो सकते हैं। आइये जानें कबीर द्वारा रचित इन दो सुंदर पदों को, जिनमें साहब ने ईश्वर को पाने, एवं ज्ञान के महत्व की व्याख्या की है।

1 ) संतौ भाई आई ग़्यांन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी।
हिति चित्त की द्वै थूंनी गिरानी, मोह बलिंडा टूटा।
त्रिस्नां छांव परि घर ऊपरि, कुबुधि का भाण्डा फूटा।
जोग जुगति करि संतौ बांधी, निरचु चूवै न पांणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जांणी।
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भीनां ।
कहै कबीर भाँन के पगटै, उदित भया तम खीनां।

प्रस्तुत सबद अपने अंदर बहुत गहन अर्थ समेटे हुए हैं। इस सबद में संत कबीर ने बताया है कि जब व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है तब किस प्रकार उसके सभी दोष, सभी अवगुण, एवं दुर्गुण समाप्त हो जाते हैं और वह पूर्णतः शुद्ध हो जाता है। अपने इस सबद् में रूपक अलंकार का चमत्कारिक प्रयोग करते हुए साहब ने ज्ञान प्राप्ति की उपमा आंधी से की है। जिस प्रकार आंधी आने पर कमजोर आशियाने की नींव से नींव नष्ट हो जाया करती है, उसी प्रकार मानव के मन रूपी झोपड़ी में जब ज्ञान रूपी आंधी आती है, तब माया, तृष्णा जैसे सभी दुर्गुणों का नाश हो जाता है।

आइए जानते हैं कि साहब ने मन को झोपड़ी के रूप में एवं ज्ञान को आंधी के रूप में किस प्रकार प्रस्तुत करते हुए अपने उपदेश दिए हैं :

कबीर कह रहे हैं कि जब आंधी आती है, तब जो कमजोर आशियाने होते हैं, वह तितर-बितर हो जाया करते हैं। सबसे पहले आंधी का प्रभाव झोपड़ी की टाटी, अर्थात चारों तरफ की दीवार पर पड़ता है और आंधी उसे अपने साथ उड़ा ले जाती है।

दीवार के उड़ जाने पर सभी बांध खुल जाते हैं। वह बंधन जिन खंभों पर टिके होते हैं अब वह भी गिर कर धराशाई हो जाते हैं। नीव के खंभों के टूटने पर खंभों पर टीका छत को सहारा देने वाला बलिंडा भी टूट पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप छत गिर जाती है।

छत के छत गिर जाती है। छत के गिरने से झोपड़े के अंदर रखें सभी मिट्टी के बर्तन टूट-फूट कर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार घर पूरी तरह नष्ट हो जाता है। जो सोच समझकर पूरी योजना के साथ घर बनाते हैं उनके घरों में एक बूंद पानी भी नहीं टपकता। टूटे हुए घरों के अंदर कचरा साफ किया जाता है और घर स्वच्छ बन जाता है। साथ ही आंधी के बाद आई वर्षा से झोपड़ी पूरी तरह धूल कर साफ हो जाती है।

आइये अब भावार्थ जानें।

कबीर दास जी ने इस आंधी की तुलना ज्ञान की आंधी से की है। वह कहते हैं - हे संत जन! हे सज्जनों! हे साधु जनों! ज्ञान की आंधी आई है। इसने हमारे मन से भ्रम रूपी दिवार को उड़ा दिया है। यह आंधी इतनी प्रबल है कि माया के बंधन भी इसे रोकने में असक्षम है। अर्थात ज्ञान ने माया एवं भ्रम को समाप्त कर दिया है। टाटी के गिरने से दुविधा रूपी दो खंभे भी धराशाई हो गए हैं, जिससे मोह रूपी बलिंडा भी गिर गया है। अर्थात ज्ञान ने दुविधा और मोह को खत्म कर दिया है। मोह के इसी बलिंडे पर तृष्णा रूपी छत पर टिकी हुई थी, जिसके टूटने पर यह छप्पर भी गिर गई है ।

इसके परिणाम स्वरूप कुबुद्धि रूपी सभी बर्तन टूट गए हैं। अर्थात ज्ञान ने मानव के मन से लोभ लालच खत्म कर दिया और भ्रष्ट बुद्धि का नाश कर दिया। अब हमारे मन रूपी घर पर ज्ञान रूपी छप्पर डल चुकी है जिसमें वर्षा की एक बूंद भी टपक नहीं सकती है। कुबुद्धि रूपी बर्तन के टुकड़ों को घर से निकाल कर हमने अपने घर रूपी को पूरी तरह स्वक्ष कर लिया है। जब यह कचरा साफ हुआ है तब हमने हरी अर्थात ईश्वर को जाना है। ज्ञान की आंधी के बाद हमारा मन प्रभु की प्रेम रूपी वर्षा में भीग रहा है और सभी दुर्गुण धूल रहे रहे हैं। जैसे ही ज्ञान का सूर्योदय हुआ वैसे ही अज्ञान रूपी तम अर्थात अंधेरे, जिसने हमारे मन को घेर रखा था, उसका नाश हो गया।

2) मोको कहां ढूंढे रे बंदे , मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में।
ना तो कोनो क्रिया कर्म में, नहीं योग बैराग में ।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहैं , पलभर की तलाश में। कहत कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की श्वास में।

कबीर दास जी द्वारा लिखा गया यह सबद हम मनुष्यों को ईश्वर की खोज में सफल होने का मार्ग प्रशस्त करता है। कबीर ने बड़ी ही ही सुंदरता से इन वाक्यों को उस परमब्रह्म निराकार परमात्मा द्वारा किए गए उद्घोष के रूप में प्रकट किया है। संसार में सभी ईश्वर की तलाश में लगे रहते हैं, सभी आत्माएं ईश्वर से मिलने को व्याकुल हैं । पर पहले वह मिले तो सही! तभी तो मिलन संभव है।

इसके लिए मनुष्य न जाने कहां-कहां जाने कहां-कहां ईश्वर को खोजता फिरता है । मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, योग, कर्मकांड सब करने के बाद भी ईश्वर प्राप्त नहीं होते क्योंकि एक जगह ऐसी है जहां हम उन्हें ढूंढते ही नहीं। वह है स्वयं के अंदर। जो अंदर मौजूद है जो स्वयं के अंदर। वह बाहर कैसे मिल सकता है?

इसी तथ्य को उजागर करते हुए कबीर कहते हैं कि ईश्वर प्राणियों को संबोधित करते हैं - हे मनुष्य! तुम मुझे कहां ढूंढते हो? कौन-कौन से स्थानों पर तुम मेरी तलाश करते हो? जबकि मैं तो तुम्हारे पास ही हूं।

तुम मुझे ढूंढने के लिए ना जाने कहां-कहां जा रहे हो। ना मैं तुम्हें किसी मंदिर में मिलूंगा, ना ही किसी मस्जिद में, ना तो तुम मुझे कैलाश और ना ही काबा जैसे स्थलों में पा सकोगे। पूजा, पाठ, धर्म, कर्म - कांड जप तप में भी मैं नहीं हूं, और ना ही तुम योग, ध्यान अथवा वैराग्य द्वारा मुझे पा सकोगे। इन सभी सांसारिक क्रिया कर्मों में मैं तुम्हें नहीं मिल पाऊंगा।

यदि तुमने सच्चे मन से, पूरी निष्ठा से मुझे खोजा होता, तो मैं तुम्हें एक पल की ही खोज में मिल जाता। क्योंकि मैं कहीं और नहीं, बल्कि तुम्हारे अंदर ही मौजूद हूं। कबीर कहते हैं कि हे साधु जनों! ईश्वर हमारी प्रत्येक सांस में विद्यमान है, हमारे रोम-रोम में उसका वास है। इसीलिए उसे कहीं और ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। अतः आज से उन्हें स्वयं में ढूंढना शुरू करो।


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