दान एवं परमार्थ पर सुंदर दोहे

दान एवं परमार्थ पर सुंदर दोहे

  

श्रेष्ठ व्यक्ति के गुणों में से एक है दानी होना। दूसरों की सहायता के लिए अपनी वस्तुओं का दान करना मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक माना जाता है। आज के इस लेख में हम कुछ ऐसे ही दोहे लेकर आए हैं, जो दान, परमार्थ एवं परोपकार की बातें करते हैं।

मित्रों, आज कल का जीवन बहुत अधिक व्यस्त एवं संकुचित होता जा रहा है, जहां व्यक्ति केवल अपने बारे में सोचने लगा है। हम दूसरों की तकलीफों व आवश्यकताओं के बारे में अधिक विचार नहीं करते और केवल अपने हित की इच्छा ने हमें अंधा बना दिया है।

इस विचारधारा के कारण हम दूसरों की मदद करने से हमेशा कतराने लगे हैं। शास्त्रों में दान को मानवता के लिए आवश्यक बताया गया है किंतु हम इसी को भूलते जा रहे हैं ।

आज के लेख में हमारी यही कोशिश है कि हम पूर्वजों द्वारा दी गई इस सीख को वापस से अपने जीवन में शामिल कर सकें। तो आइए जानते हैं दान एवं परमार्थ पर कविवर रहीम, तुलसीदास एवं कबीर दास जी ने क्या विचार प्रकट किए हैं :

1 ) रहिमन वे नर मर चुके, जो कछु मांगन जाहिं।

उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।।

यह दोहा महान दार्शनिक एवं कवि अब्दुर रहीम खान - ए - खाना द्वारा रचित है, जिन्हें हम रहीम के नाम से भी जानते हैं। मित्रों, ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि एवं क्षमता के साथ जीवन यापन के साधन भी उपलब्ध कराए हैं। ईश्वर ने मनुष्य को इतना सामर्थ्यवान बनाया है कि वह मेहनत करके स्वयं अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।

पुरुषार्थ के बल पर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति का समाज में आदर होता है, किंतु जो श्रम ना कर परिस्थितियों के समक्ष घुटने टेक देते हैं एवं दूसरों के सामने हाथ फैला देते हैं, ऐसे मनुष्य का आत्मसम्मान मर हो चुका होता है।

किंतु रहीम के अनुसार याचना करने वालों से भी अधिक नीच कुछ व्यक्ति है। आइए जाने रहीम ने किन व्यक्तियों की बात की है। प्रस्तुत दोहे में वह कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी से कुछ मांगते अथवा याचना करते हैं, ऐसे व्यक्ति मृतक के समान है। अर्थात ऐसे व्यक्तियों का आत्मसम्मान, इच्छाशक्ति और अंतर आत्मा मर चुकी होती है।

किंतु ऐसे व्यक्तियों से पहले वह व्यक्ति मृतक हो जाते हैं, जिनके मुख से याचना करने वाले के लिए नहीं निकलता है। अर्थात, जो दान करने के इच्छुक नहीं होते हैं। रहीम ने दोनों ही स्थितियों को मनुष्य के लिए लज्जा का विषय बताया है । किंतु दान देने से मना कर देने वाले व्यक्ति से अधिक हेय और कोई नहीं है। परोपकार ना करना मृत होने के समान बताया गया है।

2 ) तुलसी पंछिन के पिये, घटे न सरिता नीर ।
दान दिये धन ना घटे, जो सहाय रघुवीर ।।

महाकवि तुलसीदास जी द्वारा रचित यह दोहा दान करने से डरने वाले व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। दान करना परमार्थ का कार्य है, जिससे मनुष्य के सभी गुण और अधिक श्रेष्ठ बनते हैं।

दान करने से धन कम होता है, इस विचार को गलत बताते हुए कविवर तुलसीदास जी कहते हैं कि नदी से पंछी के पानी पी लेने से नदी का पानी कम नहीं हो जाता।

केवल पक्षी ही नहीं, बल्कि असंख्य जानवर व मनुष्य प्रतिदिन नदी से पानी लेते हैं, पर क्या कभी नदी का पानी कम होता है ? नहीं ! ठीक इसी प्रकार तुलसी कहते हैं कि दान देने से मनुष्य का धन नहीं घटता।

दान करना परोपकार है, जिससे व्यक्ति ईश्वर का आशीर्वाद पाता है । अर्थात दानी व्यक्ति से सदा ईश्वर प्रसन्न रहते हैं एवं उसकी झोली सदा धन से भरकर रखते हैं।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिली है कि कभी भी हमें दूसरों को कुछ देने से पहले यह नहीं सोचना चाहिए कि इस वस्तु के दान से हमारे पास वह वस्तु कम हो जाएगी। सच्चे मन से किया गया दान बड़ी तपस्या के फल के समान होता है । अतः मनुष्य को सदैव परोपकार हेतु दान करना चाहिए।

3 ) मरु पर मांगू नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने, मोहि न आबे लाज।।

यह दोहा महान रहस्यवादी एवं निर्गुण काव्यधारा के कवि कबीर दास जी द्वारा रचित है, जहां वह कह रहे हैं कि अपने लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना मरने के समान है।

व्यक्ति को अपने लिए कभी याचना नहीं करनी चाहिए । किंतु यदि बात दूसरों के हित की हो, तो व्यक्ति को सौ बार भी हाथ फैलाने पड़ जाए, तब भी वह पुण्य का भागी बनता है। इसी संदेश को प्रतिपादित करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि मैं मरना पसंद करूंगा, किंतु अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी से भी कुछ नहीं मांगूंगा।

अर्थात स्वयं के लिए कुछ भी मांगना मृत्यु सदृश है। किंतु यदि परमार्थ, अर्थात दूसरों की सहायता के लिए याचना करनी पड़े, तो मुझे तनिक भी लज्जा नहीं होगी। यह दोहा हमें यह शिक्षा देता है कि मनुष्य की पहली प्राथमिकता केवल परोपकार एवं परमार्थ होना चाहिए, जिसके लिए उसे जो भी करना पड़े, वह करने से पीछे ना हटे।

4 ) जो कोई करै सो स्वार्थी, अरस परस गुण देत।
बिन किये करै सो सूरमा, परमारथ के हेत ।।

दान अथवा परोपकार का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति कुछ दे, और बदले में कुछ ले, अथवा लेने की आशा रखे। परमार्थ केवल देने की भावना से किया जाता है। यही समझाते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि जो अरस परस कर देता है, अर्थात जो व्यक्ति अपने लिए किए गए कार्य के बदले में ही कुछ करता है, वह निश्चय ही स्वार्थी है।

ऐसा व्यक्ति स्वेच्छा से कभी भी दान नहीं करता। असली सूरमा तो वह है, जो बिना किसी उपकार की आशा के, केवल परमार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों की सहायता एवं उपकार करें। यहां हमें यह समझना होगा कि स्वार्थ में देने के बदले लेने की भावना निहित होती है, किंतु परमार्थ में केवल देने की इच्छा होती है। अपना लाभ देखकर किया गया दान ना तो दान कहलाता है, और ना ही परोपकार।

5 ) जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानों काम।।

संसार में जितने भी शास्त्र हैं, उनमें यही सीख दी गई है कि मनुष्य को सदैव संतोषी होना चाहिए। जीवन यापन के लिए जितना धन, जितने संसाधन चाहिए यदि उससे अधिक मनुष्य के पास हो तो उसे दूसरों को दान करना चाहिए। जीवन यापन के लिए पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धि में ही व्यक्ति को सुखी होनी चाहिए, ना कि अधिक पाने का लोभ करना चाहिए। इस दोहे का सार यही है।

कबीर दास जी दोहे की पहली पंक्ति में कहते हैं कि जब नाव में पानी बढ़ने लगे, और जब घर में बहुत अधिक धन एवं ऐश्वर्य जमा होने लगे, तो उसे जल्द से जल्द दोनों हाथ से उलीच कर बाहर कर देना चाहिए । अर्थात, आवश्यकता से अधिक धन का दान कर देना चाहिए। यही बुद्धिमान एवं विचक्षण व्यक्ति की पहचान है।

कबीर दास जी के इस दोहे में यह संदेश छिपा है कि जिस प्रकार नाव में अत्यधिक जल बढ़ जाने से वह डूब जाता है, ठीक उसी प्रकार गृहस्थ जीवन में अधिक धन-संपत्ति के जमा हो जाने से माया, लोभ, पाप, दुराचार जैसे कुकर्मों का जन्म होने लगता है, एवं गृह का विनाश हो जाता है। अतः इस धन का दान करना ही सबसे अच्छा है।

निष्कर्ष :

मित्रों, प्रस्तुत लेख में आपने दान एवं परमार्थ से जुड़े दोहों का आनंद लिया । कविवर रहीम, कबीर एवं तुलसीदास जी ने यही सीख दी है कि मनुष्य को सदा दानी बनना चाहिए।

यहां तक कहा जाता है कि जब मनुष्य दान देने के योग्य ना हो, तब उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। बड़े-बड़े धर्म-कर्म कांडों से भी अधिक महत्ता दान को दी गई है, जिसे कई तपस्या के फल के बराबर कहा गया है। अतः मनुष्य का यही कर्तव्य है कि उससे जितना बन पड़े, उतना अधिक परोपकार करना चाहिए।


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