जीवन को सही दिशा दिखाने वाले संत कबीर के अनमोल दोहे

जीवन को सही दिशा दिखाने वाले संत कबीर के अनमोल दोहे

  

कबीर दास या संत कबीर के दोहे आज भी सबकी ज़ुबाँ पर हैं। जीवन के हर पहलू पर दोहों, साखियों, शबद् के रूप में उनकी वाणी ने समाज को सही दिशा दी है। धर्मिर्पेक्षता की मिसाल बनाने वाले कबीर के दोहों से हम जीवन मूल्यों के अनमोल ख़ज़ाने तक पहुँच सकते हैं, और उनके दिखाये रास्ते पर अग्रसर हो कर हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।

आइये जानें कबीर दास के दोहों को, और समझें उनके अंदर छुपे गूढ़ रहस्यों को :

1 ) अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप

प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने किसी भी चीज की अतिशयोक्ति ना करने का संकेत दिया है, और बताया है कि जब कोई चीज आवश्यकता से अधिक हो जाए तो क्या परिणाम होता है। चाहे वह चीज़ कितनी भी अच्छी क्यों न हो, यदि ज़्यादा हो जाए, तो नुक्सान करती है ।

कवि कहते हैं कि ना ही अधिक बोलना अच्छा है, ना ही अधिक चुप रहना ही। आवश्यकता से अधिक बोलने वाला व्यक्ति वाचाल कहलाता है। वह अपनी गोपनीय बातों को भी प्रकट कर देता है या अपनी वाणी से किसी को चोट पहुंचा देता है, अथवा समाज में हंसी का पात्र बनता है। जब की आवश्यकता पड़ने पर भी ना बोलने वाला व्यक्ति खुद का नुकसान कर बैठता है। अपने विचारों को ना प्रकट कर पाने पर वह अपने कौशलों का प्रदर्शन नहीं कर पाता, अपनी इच्छाएं प्रकट नहीं कर पाता, जिससे वह दुख का भागी बनता है।

जिस प्रकार ना अत्यधिक वर्षा अच्छी है, और ना ही अत्यधिक धूप, उसी प्रकार किसी भी चीज की अति कर देना, अथवा किसी भी चीज का जरूरत से ज्यादा (बहुतायत) में होना नुकसानदेह साबित होता है।

2 ) तिनका कबहूँ न निंदिए, जो पाँवन तर होय
कबहूँ उड़ी आखिन पड़े, पीर घनेरी होय

उपयुक्त दोहे में कबीर दास जी ने तिनके के चरित्र का चित्रण किया है। तिनका बहुत छोटा होता है, जिसे लोग पांव तले दबा कर आगे निकल पड़ते हैं । किंतु वही तिनका यदि आंखों में चला जाए, तो तेरा एवं कष्ट का कारण बन जाता है। इस दोहे के माध्यम से संत कबीर दास जी ने दूसरों को नीचा समझने वाले लोगों को यह समझाया है समय बदलने पर वही व्यक्ति उन्हें कष्ट दे सकते हैं।

कबीरदास जी कहते हैं कि किसी व्यक्ति को खुद से नीचे समझकर उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने नीचा समझे जाने वाले व्यक्तियों की तुलना तिनके से की है और कहा है कि तिनके का आकार छोटा होता है, किंतु उसकी क्षमता काफी अधिक होती है। जिस प्रकार तिनके के आँखों में चले जाने से घनी पीड़ा होती है, ठीक उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति की किसी को तुच्छ समझ कर उसकी अपेक्षा करने पर समय आने पर वही व्यक्ति हमारे कष्ट का कारण बन सकता है।

3 ) मानव जन्म दुर्लभ है, देह न बारंबार
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े , बहुरि न लागे डारि

प्रस्तुत दोहे में संत कबीर दास हमें मानव जन्म के महत्व से परिचित करा रहे हैं। उन्होंने मानव शरीर का मूल्य समझ कर इसका सदुपयोग करने की दिशा में संकेत किया है।

कबीरदास कहते हैं कि मानव जन्म बरी दुर्लभता से मिलता है। कई सारी अन्य योनियों में जन्म लेने के बाद मानव शरीर की प्राप्ति होती है। हमारे शास्त्रों में भी मानव शरीर को संसार की अन्य सभी योनियों से श्रेष्ठ माना गया है । अतः बार-बार यह नहीं मिलता। जिस प्रकार वृक्ष से एक बार पता झड़ जाने पर दोबारा वृक्ष में नहीं लगता, उसी प्रकार मानव शरीर भी बार-बार नहीं मिलता। कई कठिनाइयों के बाद हमें यह देह मिला है। अतः इस जन्म में मिले हर एक क्षण का हमें सही एवं सार्थक उपयोग करना चाहिए।

4) जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यांन

कबीर दास जी ने इस दोहे में सज्जन व्यक्तियों को साधु कहकर संबोधित किया है। वह कहते हैं कि सज्जन व्यक्तियों की जाति, वर्ण, इत्यादि नहीं पूछनी चाहिए। अपितु इसके स्थान पर उनके ज्ञान को समझना चाहिए। यहां कबीर दास जी ने बड़ी ही सहजता से समाज में प्रचलित कुरीतियों पर कटाक्ष करते हुए जात-पात एवं भेदभाव के रीती को गलत ठहराया है। लोग किसी की विद्वता का आधार उसकी जात अथवा कुल को समझ लेते हैं। व्यक्ति बाहरी रूप से जैसा है, उसी के आधार पर उसका चरित्र चित्रण कर देते हैं, किंतु कबीर कहते हैं कि हमें ऐसा ना कर के लोगों को उनके ज्ञान के आधार पर रखना चाहिए । क्योंकि बाहरी वेशभूषा केवल आवरण मात्र है, असली वस्तु अंदर विद्यमान है।

जिस प्रकार केवल म्यान के अंदर पड़ी तलवार का ही मूल्य होता है एवं म्यांन देखकर तलवार की विशिष्टता नहीं पता चलती, उसी प्रकार व्यक्ति को बाहरी तौर पर देख कर आँका नहीं जा सकता। म्यांन का कोई मूल्य नहीं है, अपितु तलवार का है। उसी प्रकार जाति का कोई मूल्य नहीं बल्कि, व्यक्ति की ज्ञान का है। बाहरी छवि केवल एक आवरण अथवा खोल मात्र है, सत्य वह है जो अंदर उपस्थित है।

5 ) कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव
सूने घर का पाहुना, ज्यूँ आया त्युं जाव

इस दोहे में कबीर दास जी ने प्रेम को संसार में सबसे श्रेष्ठ बताया है। इस संसार की नींव आधार प्रेम ही है। कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं और चख कर भी स्वाद ना लिया, उसने संसार में आकर कुछ भी नहीं पाया। प्रेम को ना चखने का तात्पर्य है प्रेम ना करना, अथवा प्रेम ना प्राप्त कर पाना एवं प्रेम को चख कर उसका स्वाद ना लेने का तात्पर्य है प्रेम को जानकर भी प्रेम ना करना।

संसार में प्रेम ही परम सत्य है, चाहे वह मानव से मानव का हो, या प्राणी से ईश्वर का, सभी संबंधों का आधार प्रेम ही है। इस संसार में प्रेम का स्वाद लेने वाला व्यक्ति उस पाहुन के समान है, जो निर्जन घर में अतिथि बनकर आता है। निर्जन घर में वह जिस प्रकार आता है, उसी प्रकार चला जाता है। उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। ठीक उसी प्रकार संसार में आकर जिसने प्रेम रूपी सत्य से स्वयं को अनभिज्ञ रखा वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाया और जिसने इसे जान लिया उसने सब कुछ पा लिया।

6 ) मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कहे कबीर गुरु पाइये, मन ही के प्रतीत

कबीर ने कहा है कि जिस व्यक्ति अपने मन से हार मान ली, वह वास्तविकता में भी हार जाता है। और जिसने मन से जीत को स्वीकार कर लिया, वह वास्तविकता में जीत जाता है। अर्थात परिस्थितियों से व्यक्ति उबर पाता है या नहीं यह उसका मन ही निश्चित करता है। मनुष्य अपने जीवन में जो भी क्रियाएं करता है, वह सब उसके मन मस्तिष्क द्वारा संचालित होती है।

हम जैसा विचार करते हैं हमारी क्रियाएं उसी के अनुरूप ढल जाती है। मनुष्य की हार और जीत उसके मनोयोग पर निर्भर करती है। इसीलिए कबीर ने कहा है कि मन की पराजय मनुष्य की पराजय बन जाती है और मन की विजय ही मनुष्य को विजेता बना देती है। मन पर विश्वास रखकर ही ईश्वर को पूरी सहजता से प्राप्त किया जा सकता है।


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