संत कबीर की प्रसिद्ध साखियाँ

संत कबीर की प्रसिद्ध साखियाँ

  

संत कबीर मध्यकालीन भक्ति काल के निर्गुण काव्यधारा के महान संत कवि हैं। इनका जन्म 1398 में मगहर तथा मृत्यु 1598 में हुई थी। हालांकि कबीर जी के जन्म एवं मृत्यु की तिथि में मतभेद है। संत कबीर अपनी रचनाओं द्वारा धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड का विरोध करने के लिए अति प्रसिद्ध है। कबीर ने हमेशा सभी धर्म एवं सभी संप्रदाय के लोगों को उस निराकार ब्रह्म की उपासना करने की सलाह दी जो राम एवं रहीम दोनों ही रूपों में विद्यमान हैं। कबीर की रचनाएं उसी निराकार ब्रह्म की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है और ईश्वर भक्ति को सबके लिए आसान बनाती है। भाईचारे एवं प्रेम का संदेश देने वाले यह महान संत अपने द्वारा किए गए समाज सुधारो के लिए भी जाने जाते हैं। इन्होंने अपने जीवन काल में समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया और इन्हें सुधारने का भी अथक प्रयास किया।

प्रस्तुत लेख में हम आपके लिए इस महान संत कवि द्वारा लिखी गई कुछ साखियां लेकर आए हैं जो मानव जीवन को उद्धार की ओर ले जाने में मार्गदर्शक सिद्ध होती हैं। तो आइये जानें कबीर की प्रसिद्ध साखियाँ :

1 ) ऊँचे कुल का जनमिया , जे करनी ऊँचन होइ
सुवरन कलस सुरा भरा , साधू निंदा सोइ

प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने समाज में व्याप्त जाति प्रथा पर गहरा प्रहार किया है एवं व्यक्ति की जाति को उसकी श्रेष्ठता एवं विद्वता का प्रमाण समझ लेने वाली मानसिकता को पूरी तरह गलत ठहराया है। कबीरदास जातियों के विभाजन के सख्त विरोधी थे। उन्होंने इस दोहे के माध्यम से यह संदेश दिया है कि व्यक्ति की श्रेष्ठता उसकी जात-पात अथवा मूल से नहीं निश्चित होती, बल्कि यह व्यक्ति के कर्म हैं जो उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं।

कबीरदास जी कहते हैं कि ऊंचे कुल में जन्म तो ले लिया, किंतु ऊंचा तभी कहलाओगे जब करनी अर्थात कर्म भी ऊंचे अर्थात श्रेष्ठ होंगे। मात्र ऊंचे कुल में जन्म लेने से व्यक्ति विद्वान अथवा श्रेष्ठ नहीं बन जाता । श्रेष्ठ होने के लिए व्यक्ति के गुणों एवं कर्मों में भी श्रेष्ठता प्रत्यक्ष दिखनी चाहिए। यदि कोई ऊंचे कुल का व्यक्ति अशिष्ट एवं नीचता से भरे कर्म करें, गलत आचरण रखे तो वह श्रेष्ठ कैसे कहलाएगा?

वहीं यदि कोई व्यक्ति गुणवान हो तो वह आदर का पात्र बनता है, श्रेष्ठ कहलाता है, भले ही वह किसी भी जाति अथवा धर्म का हो। जिस प्रकार सोने के कलश में मदिरा भरी हो तो वह कलश हर जगह निंदा का पात्र बनता है, भले ही वह कितने ही अनमोल रत्न से क्यों ना बना हो । चाहे वह कलश कितना भी मूल्यवान हो किंतु उसके अंदर भरी अशुद्ध मदिरा उसे अवांछनीय बनाती है। कलश की गुणवत्ता उसके अंदर भरे पदार्थ से साबित हो रही है, ना कि बाहरी मूल्यवान रत्नों से। ठीक उसी प्रकार व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों से होती है ना की उसकी जाति अथवा कुल से।

2 ) काबा फिरि कासी भया , रामहिं भया रहीम
मोट चून मैदा भया , बैठि कबीरा जीम


इस दोहे में कबीर ने समझाया है कि सभी धर्मों का गंतव्य एक ही है, और वह है परमसुख परमानंद ईश्वर। वह ईश्वर जिसे राम, रहीम और कई अन्य नामों से संबोधित किया जाता है, किंतु वह एक ही तत्व है, एक ही शक्ति है। कबीर ने जीवन भर धर्मनिरपेक्षता की बात कही और इस पर डटे भी रहे। वह केवल एक ही ईश्वर को मानते थे, चाहे उसे राम कहा जाए या फिर रहे।

कबीरदास जी कहते हैं कि काबा ही बदलकर काशी बन जाता है और काशी ही परिवर्तित हो काबा बन जाता है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है। काबा में भी वही ईश्वर है जो काशी में है। इसीलिए व्यक्ति काबा की यात्रा करें या काशी का भ्रमण करे, वह ईश्वर की ही भक्ति करेगा । हम राम का नाम जपें या रहीम कहें, दोनों एक ही ईश्वर है।

कवि ने इस तथ्य को समझाने के लिए आटे एवं मैदे का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वह कहते हैं कि गेंहू के पीसे जाने पर आंटा बन जाता है, और उसी आटे को यदि बारीक पीस दिया जाए तो वह मैदा बन जाता है, किंतु दोनों गेहूं के ही बने होते हैं। अर्थात दोनों में एक ही तत्व होता है, केवल दोनों के रूप अलग-अलग हैं। दोनों खाने की ही उपयोग में लाए जाते हैं और जीभ पर आने के बाद एक ही स्वाद देते हैं। ठीक उसी प्रकार राम एवं रहीम केवल दो अलग नाम है, किंतु वह एक ही है एक ही ईश्वर है। अतः हम राम को पूजे या रहीम को, काबा जाएं या फिर काशी जाएं, एक ही ईश्वर को प्राप्त करेंगे।

3 ) सोना सज्जन साधुजन , टूटि जुरै सौ बार
दुर्जन कुंभ कुम्हार के , एकै धर दरार

कबीर दास के इस दोहे में जीवन का बहुत बड़ा यथार्थ छिपा हुआ है। प्रस्तुत दोहे में कबीर ने सज्जन एवं दुर्जन व्यक्ति की मनोदशाओं का चित्र चित्रण किया है। सज्जन एवं दुर्जन व्यक्ति के व्यवहार एक दूसरे से भिन्न एवं विपरीत होते हैं। जहां सज्जन व्यक्ति जोड़ने की कामना रखता है, वहीं दुर्जन की मंशा जुड़े हुए को भी तोड़ने की होती है।

कबीर जी कहते हैं कि सोना, सज्जन एवं साधु सौ बार टूटने पर भी जुड़ जाते हैं। उन्होंने साधु एवं सज्जनों व्यवहार की तुलना सोने से की है। सोना बार-बार आग में तप कर कई टुकड़ों में तोड़ा जाता है और फिर पुनः जोड़ लिया जाता है। ऐसा एक बार नहीं बल्कि सैकड़ों बार होता है और हर बार सोना पुनः जुड़ जाता है। ठीक इसी प्रकार साधु एवं सज्जन व्यक्ति बार-बार पराजित होने पर भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हर बार उठ खड़े होते हैं।

वहीं दूसरी ओर संत कबीर ने दुर्जन व्यक्तियों की तुलना कुमार के द्वारा बनाए गए मिट्टी के घड़े से की है। कुमार द्वारा बनाया गया मिट्टी का घड़ा एक ही वार में टूट कर चकनाचूर हो जाता है, जिसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता। वैसे ही दुर्जन व्यक्ति भी एक ही ठोकर में चूर-चूर हो जाता है अर्थात एक ही विपत्ति में अपना मनोबल खो बैठता है और पराजित हो जाता है।

4 ) मन के मते न चलिए , मन के मते अनेक
जो मन पर असवार है , सो साधु कोई एक

उपयुक्त दोहे में कबीर जी ने बड़ी ही सुंदरता से मन की चंचल प्रवृत्ति की ओर इंगित किया है। कवि ने बताया है कि मन सदा इधर-उधर भटकता रहता है। इसकी इच्छाएं एवं आशाएं अनंत हैं, जिसका ना कोई ओर है और ना कोई छोर। मन की इसी चंचल प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए कबीर कहते हैं कि हमें मन के अनुसार नहीं चलना चाहिए। अर्थात ऐसा होना चाहिए कि मन हमें नहीं, बल्कि हम मन को नियंत्रित करें। इसीलिए इस दोहे में कहा गया है कि मन के मत के अनुसार ना चलो, क्योंकि मन के मत अनेक है। मन सदैव कई तरह के विचारों से भरा रहता है। ऐसे में मन के अनुसार चलने वाला व्यक्ति इन्हीं विचारों में उलझ कर रह जाता है।

अतः कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति मन को स्वयं के नियंत्रण में रखता है वही बुद्धिमान है । इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें स्वयं को समुद्र रूपी मन की धाराओं में प्रवाहित होने से रोकना चाहिए। सज्जन व्यक्ति वही है जिसने मन की सारी इच्छाओं को अपने वश में कर लिया हो।

5 ) पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय।

प्रस्तुत दोहे में कबीर ने बड़ी सरलता से बहुत बड़ी बात बताई है। उन्होंने प्रेम की महिमा मंडन की है। वह प्रेम, जो इस श्रृष्टि का आधार है, वह प्रेम जिससे यह श्रृष्टि बनी है, फल फूल रही है, और वह प्रेम जो इस संसार का सबसे बड़ा ज्ञान है।

कबीर कहते हैं पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, अर्थात कि वह लोग मूढ़ हैं, जो केवल किताबों एवं पोथियों में ज्ञान ढूंढते हैं। सहस्त्र ग्रंथ पढ़ने के बाद भी वह व्यक्ति ज्ञानी नहीं बन पाता, जिसे हृदय में प्रेम, करुणा का वास न हो। कबीर ने कहा है कि पूरे संसार का ज्ञान अर्जित करने वाला व्यक्ति भी पंडित अर्थात ज्ञानी ना बन सका, किंतु जिसने केवल ढाई अक्षर का शब्द पढ़ लिया, वह पंडित बन गया।

ढाई अक्षर का वह शब्द है प्रेम, अर्थात जिसने प्रेम को जान लिया उसने संसार का सबसे बड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया। किंतु जिसने संसार की सभी ग्रंथ पढ़ डाले लेकिन प्रेम का पाठ न पढ़ा वह मूर्ख ही रह गया । इसका तात्पर्य यह है कि इस संसार में सबसे बड़ा ज्ञान प्रेम है । प्रेम ही इस सृष्टि का आधार है, प्रेम ही आत्मा से परमात्मा के मिलन का आधार है, एवं प्रेम ही संसार के सारे ग्रंथों का एकमात्र सार है। एक व्यक्ति जिसने कुछ न पढ़ा लिख हो, जिसे कोई ज्ञान ना हो, किंतु यदि उसके हृदय में प्रेम एवं करुणा हो तो वह उनको ज्ञानियों से भी बढ़कर होगा जिन्होंने नाना प्रकार की विद्याएं प्राप्त की हो।


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