संगति की महिमा बताते दोहे

संगति की महिमा बताते दोहे

  

मित्रों, आपने अनुभव किया होगा कि यदि आप किसी के साथ लंबे समय तक रहते हैं, तो आप दोनों के कुछ गुण, आदतें, व्यवहार, एवं विचार भी एक दूसरे से मिलने लगते हैं।

क्या आपने कभी सोचा है ऐसा क्यों होता है?


इसी को संगति कहते हैं। जब हम किसी के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं, तब उनके गुण एवं हमारे गुण एक दूसरे को परस्पर प्रभावित करते हैं। यदि सामने वाला व्यक्ति उच्च चरित्र एवं श्रेष्ठ गुणों वाला हो, तो हमारे गुण उसी के अनुरूप ढल जाते हैं एवं हमारे दुर्गुण भी सद्गुणों में बदल जाते हैं। परंतु यदि सामने वाले व्यक्ति का आचरण अशिष्ट एवं विचार दूषित हों, तो धीरे-धीरे हमारा आचरण एवं विचार भी उन्हीं के जैसे बनने लग जाते हैं।

जी हां मित्रों ! ऐसा ही होता है। इसीलिए बड़े सदैव हमें अच्छी संगति में रहने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। अतः खुद को पतन के मार्ग पर अग्रसर होने से रोकने के लिए यह आवश्यक है कि हम अच्छी संगति में रहें। आज की चर्चा इसी विषय पर है। आज हम ऐसे दोहे लेकर आए हैं जिसमें अच्छी संगति कुसं गति के कई पहलुओं पर चर्चा की गई है। आइए जाने इन दोहों को :

1 ) कबीर चंदन के भिरे, नीम भी चंदन होय।
बुरो बंश बराईया, यों जानि बुरू कोय।।

अच्छी संगति में रहकर दुर्जन व्यक्ति भी सज्जन हो जाता है। किंतु संगति के सद्गुण प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में विनम्रता एवं आदर भाव का होना अत्यंत आवश्यक है। अहंकारी व्यक्ति को संगति के अच्छे गुण प्राप्त नहीं होते हैं। इसी तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कविवर ने इस दोहे की रचना की है और कहा है कि चंदन के वृक्ष के आसपास रहने से नीम भी चंदन हो जाता है।

अर्थात चंदन की छत्रछाया में नीम भी चंदन के कुछ गुण (सुगंध) ग्रहण कर लेता है, किंतु बांस अपनी लंबाई, अर्थात अपने बड़ेपन की अकड़ में रहता है, जिसके कारण वह चंदन के गुणों का लाभ कभी नहीं ले पाता है। यहां नीम ने विनम्ररता पूर्ण व्यवहार का पालन चंदन की संगति स्वीकार की, जिसके परिणाम स्वरूप नीम भी सुगंधित हो गया, किंतु बांस ने लंबाई के अपने गुण पर घमंड किया एवं खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल की, जिसके कारण उसे चंदन की मनमोहक सुगंध प्राप्त नहीं हुई।

अतः हमें स्वयं पर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। खुद को श्रेष्ठ समझने वाला दूसरों के अच्छे गुणों को न ही देख पाता है, ना ही उनकी सराहना कर पाता है। इससे केवल हमारी ही हानि होती है। अतः संगति से अच्छे गुणों को प्राप्त करने के लिए सहज भाव एवं विनम्रता का होना अनिवार्य है।

2 ) उजल बूंद आकाश की, परी गयी भूमि बिकार।
माटी मिलि भई कीच सो, बिन संगति भौउ घार।।


प्रस्तुत दोहे में कवि ने यह संदेश प्रतिपादित किया है कि जो जैसी संगति में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। क्योंकि संगती का हमारे चरित्र, गुणों, आचरण एवं व्यवहार के ऊपर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए इस दोहे के माध्यम से कबीर ने मनुष्य को सदैव अच्छे लोगों के साथ रहने के लिए प्रेरित किया है।

दोहे की पहली पंक्ति में वह कहते हैं कि आकाश से गिरने वाली वर्षा की बूंदे शुद्ध, निर्मल, एवं उज्जवल होती है। किंतु जैसे ही वह उज्जवल बूंदे आकाश से भूमि पर गिरती हैं, तो धूल कण एवं मिट्टी के स्पर्श से बेकार हो जाते हैं। जो वर्षा की बूंदे अत्यंत स्वच्छ होती हैं, वही मिट्टी में मिलकर कीचड़ का रूप ले लेती है। यहां बूँदें मिट्टी की संगति में रहकर अशुद्ध बन गई । इसी प्रकार अच्छा व्यक्ति भी बुरी संगति में रहकर दुष्ट बन जाता है। अतः बुरी संगति का अवश्यंभावी रूप से त्याग करें।

3 ) जो छौरे तो आंधारा, खाये तो मरि जाये।
ऐसे खांध छुछुंदरि, दोउ भाँति पछिताय।।


मनुष्य को हर हाल में बुरी संगति से बच कर रहना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि खराब संगत में रहकर व्यक्ति की अपनी हानि तो होती ही है, किंतु उसे त्यागने के बावजूद भी वह उसके दुष्परिणामों से अछूता नहीं रहता है। बुरी संगति को छोड़ देने के बाद भी उसे कष्ट का सामना करना पड़ता है। यही संदेश देने के लिए कविवर कबीर दास जी ने इस दोहे की रचना की है।

वह कहते हैं कि सांप यदि आहार समझकर छछूंदर को पकड़ ले, और पकड़ कर छोड़ दे तो वह अंधा हो जाता है। किंतु यदि वह उसे खा भी ले तो सांप की मृत्यु निश्चित है। अतः दोनों ही स्थितियों में सांप की हानि होती है। छछूंदर को पकड़ लेने पर हर हाल में सांप का अनिष्ट होना निश्चित है। इसीलिए सांप बहुत पछताता है।

ठीक इसी प्रकार बुरे व्यक्तियों की संगति में रहने पर व्यक्ति का पतन होता है। किंतु यदि व्यक्ति दुर्जनों का साथ छोड़ दें तो वह उसके दुश्मन बन जाते हैं और जीवन भर उसके कष्ट का कारण बनते हैं। अतः व्यक्ति को बहुत पछताना पड़ता है।


प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कुसंगति मनुष्य के लिए हर प्रकार से विनाशकारी सिद्ध होती है। जब तक हमें कुसंगति के बुरे परिणाम का आभास होगा, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी क्योंकि यह उस कलंक की भांति है, जो धुलने पर भी अपना दाग नहीं छोड़ता। अतः बुरी संगति से बच कर रहना चाहिए।

4 ) कबिरा खाई कोट की, पानी पीवै न कोई।
जाई मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होई।।


संसार में ऐसा कोई नहीं है जो अच्छी संगति से गुणवान नहीं बन सकता। संगति में इतनी शक्ति होती है कि वह दुष्ट को भी सज्जन बना सकती है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कवि कबीर दास जी दोहे की प्रथम पंक्ति में कहते हैं कि किले को घेर कर रखने वाली खाई का पानी कोई भी नहीं पीता। भला कौन उस गंदे पानी को पीना चाहेगा, जो सब तरह की अशुद्धियों से भरा पड़ा है।

किंतु जब वही गंदा पानी गंगा नदी में जाकर मिल जाता है, तब उसे गंगोदक के नाम से जाना जाता है। यह गंगोदक परम पवित्र एवं पूजनीय माना जाता है। इसकी एक - एक बूंद का महत्व होता है। अतः गंगा जैसी पवित्र नदी के संग से गंदा पानी भी गंगाजल समान पवित्र बन गया और उसकी सभी अशुद्धियां दूर हो गई। इसी प्रकार संपूर्ण दोषों एवं दुर्गुणों से परिपूर्ण मनुष्य भी साधु - संतों एवं सज्जन व्यक्ति की संगति में रहकर सभी दोषों से मुक्त हो कर निर्मल एवं सज्जन बन जाता है।

5 ) चंदन जैसे संत है, सरूप जैसे संसार।
वाके अंग लिपटा है, भागै नहीं विकार।।


ज्ञानी व्यक्ति, जिसने अपने मन पर पूरी तरह नियंत्रण पा लिया हो, वह सांसारिक विषय वस्तु से प्रभावित नहीं होता। सज्जन व्यक्ति पर बुरी संगति का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यही बताते हुए कवि प्रस्तुत दोहे में कहते हैं कि साधु - संत और महात्मा चंदन की तरह होते हैं, जिसके हर अंग में ज्ञान रूपी मनमोहक सुगंध विद्यमान होती है। और यह संसार सर्प की भांति है जिसके रोम रोम में केवल विष व्याप्त है।

अर्थात सांसारिक लोगों में सब तरह के दोष होते हैं। यदि सांप चंदन के वृक्ष से बहुत समय तक भी लिपटा रहे, तब भी सांप का विष एवं विकार समाप्त नहीं होता और वह चंदन की सुगंध को ग्रहण नहीं कर पाता।

6 ) आँखों देखा घी भला, ना मुख मेला तेल।
साधू सोन झगड़ा भला, ना साकुत सोन मेल।।


प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कविवर कबीर दास जी ने अच्छी संगति के महत्व को समझाया है। घी देखने में भी सुंदर होता है और उसका स्वाद भी अत्यंत मनमोहक है। तेल ना तो सुंदर दिखाई देता है, और ना ही उसका स्वाद अच्छा होता है। घी और तेल की उपमा करते हुए कविवर दोहे की प्रथम पंक्ति में कहते हैं कि घी केवल देखने मात्र से भी आंखों को अच्छी लगती है, किंतु तेल मुंह में डाल लेने पर भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि उसका स्वाद उत्तम नहीं है।

इसी प्रकार साधु-संतों से झगड़ा करना भी अच्छा है, किंतु दुष्टों से मेल - मिलाप, मित्रता आदि अच्छी नहीं है। क्योंकि साधु संत की संगति उत्तम है जिसके केवल सानिध्य मात्र में रहने से भी लाभ की प्राप्ति होती है। उनसे झगड़ा भी कर लिया जाए तो बदले में प्रेम व ज्ञान मिलता है। किंतु दर्जनों के साथ मधुर संबंध से भी उनके अवगुण एवं दोष ही प्राप्त होते हैं। अतः दुष्ट की संगति से भली सज्जन पुरुष की शत्रुता है। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें सदैव अच्छी संगति में रहना चाहिए।

निष्कर्ष :
संगति पर आधारित उपर्युक्त दोहों को पढ़कर आपको कैसा लगा ? इस लेख में हमने यह जाना की अच्छी संगति का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है। यदि व्यक्ति के जीवन में सुसंगति का अभाव हुआ, तो उसे बहुत बड़ी हानि होती है। इससे न हीं केवल उसका चरित्र बुरी तरह प्रभावित होता है, बल्कि समाज में मान, सम्मान, प्रतिष्ठा आदि भी धूमिल हो जाती है। इन सभी बातों को जानते हुए महापुरुषों ने हमेशा हमें यह चेतावनी दी है कि हम बुरी संगति से बचकर रहें और सदैव साधु सज्जनों की संगति का आनंद लें ।


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