विद्या पर महाकवियों के दोहे

विद्या पर महाकवियों के दोहे

  

मित्रों, आज की चर्चा का विषय है - "विद्या"। हमारे जीवन में विद्या का कितना महत्व है, इस बात का अनुमान एक पंक्ति से लगाया जा सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि - "विद्या विहीन मनुष्य पशु के समान होता है।"

जी हाँ मित्रों, विद्या के बिना मानव जीवन का अस्तित्व नहीं है। विद्या द्वारा ही मनुष्य स्वयं को, अपने उद्देश्य, अपने कर्तव्यों, अपने दायित्वों को जान पाता है। विद्या से ही मनुष्य को अपने समाज का ज्ञान होता है। रीति - नीति, धर्म - अधर्म, कर्म, आचार - व्यवहार, गुण - अवगुण, अच्छा - बुरा, विज्ञान, आध्यात्म इत्यादि सबका ज्ञान विद्या प्राप्ति द्वारा ही संभव है।

इसीलिए बाल्यावस्था से ही व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति में संलग्न हो जाता है। विद्या और व्यक्ति के बीच गुरु पुल का काम करते हैं। गुरु ही हैं, जो शिष्य को हर ज्ञान प्रदान करते हैं। अतः गुरु पूजनीय हैं। मित्रों, किंतु कई लोग विद्या को केवल किताबी ज्ञान से जोड़कर देखते हैं। यह अवधारणा बिल्कुल गलत है। क्योंकि विद्या केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है। संसार के कन - कन में ज्ञान बसा है।

केवल किताबी ज्ञान प्राप्त कर लेने से विद्या पूर्ण नहीं होती। व्यक्ति को आचार, विचार, व्यवहार, नैतिकता इत्यादि का भी ज्ञान होना चाहिए। यह विद्याएँ व्यक्ति को आत्म अवलोकन के द्वारा ही प्राप्त होती हैं। व्यक्ति के अंदर असीम ज्ञान है, जिसे केवल पहचानने की आवश्यकता होती है। इसके साथ एक और अवधारणा यह भी है कि एक चरण के बाद माना जाता है कि विद्या समाप्त हो गई है। उसे चरण के बाद व्यक्ति पढ़ना लिखना छोड़ देता है और आजीविका पर ध्यान केंद्रित कर देता है। परंतु विद्या कभी समाप्त नहीं होती।

इसे ग्रहण करने के लिए न तो उम्र की कोई सीमा है, और ना ही इसका कोई अंत है। जब तक व्यक्ति जीवित है, तब तक उसे विद्या ग्रहण करते रहना चाहिए। क्योंकि विद्या अनंत है। ज्ञान अथाह है, जिसे प्राप्त करने के लिए हमारा पूरा जीवन भी बहुत कम है। अतः अपने जीवन के प्रत्येक दिन को कुछ ना कुछ सीखने में अवश्य लगाएं।

आज के लेख में हम आपके लिए विद्या पर आधारित ऐसे दोहे लेकर आए हैं, जिसमें विद्या से जुड़े कई विषयों की चर्चा की गई है। तो आइए जानते हैं इन मार्गदर्शक दोहों को :

1 ) उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय।
परयो उपावन ठौर में कंचन तजे न कोय।।

प्रस्तुत दोहा कविवर वृंद द्वारा रचित है। यहां उन्होंने विद्या के महत्व का वर्णन किया है। दोहे में कंचन शब्द का अर्थ है सोना। कवि महोदय कहते हैं कि यदि सोना गंदे अथवा पवित्र स्थान पर भी पड़ा हो, तब भी उसे कोई नहीं छोड़ता। यदि बहुमूल्य सोने को पाने के लिए व्यक्ति को गंदगी में जाना पड़े, अथवा स्वयं को अपवित्र भी करना पड़े, तब भी वह बिना किसी शंका के सोने को पाने का प्रयास करता है, क्योंकि सोना बहुमूल्य है।

सोने की चमक के आगे पवित्रता और अपवित्रता, स्वच्छता अस्वच्छता के सभी पैमाने खत्म हो जाते हैं क्योंकि सोना पा कर व्यक्ति को लाभ ही लाभ होगा। ठीक इसी प्रकार उत्तम विद्या जहां भी मिले, चाहे वह किसी नीच या अयोग्य व्यक्ति से ही क्यों ना मिले, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।

अर्थात अधम व्यक्ति से भी विद्या प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि विद्या का मूल्य सोने से भी अधिक है। किसी गंदी जगह पर रहने से सोने का मूल्य कम नहीं होता। इसी प्रकार नीच व्यक्ति में गुण होने से गुणों का मूल्य कम नहीं हो जाता।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि विद्या जितनी पाई जाए, उतना ही कम है। अतः सीखने के अवसर को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा, सभी में कुछ गुण एवं अवगुण होते हैं। हमें लोगों के गुणों पर ध्यान देना चाहिए और हर व्यक्ति से अच्छे गुणों को ग्रहण करना चाहिए।

2 ) पंडित पढ़ते वेद को, पुस्तक हस्ति लाद।
भक्ति ना जाने राम की, सबे परीक्षा बाद।।

प्रस्तुत दोहे में कविवर कबीरदास जी कहते हैं कि सबसे बड़ा ज्ञान ईश्वर की भक्ति ही है। यह किसी पुस्तक में लिखी नहीं मिलती, बल्कि यह व्यक्ति के मन के भीतर होती है। यदि ईश्वर रूपी ज्ञान की प्राप्ति ना हो, तो अन्य सभी ज्ञान व्यर्थ है। यही संदेश प्रतिपादित करते हुए दोहे की प्रथम पंक्ति में कवि ने कहा है कि पंडित वेद - पुराण आदि कई ग्रंथों को पढ़ते हैं।

वह इतनी पुस्तकों को पढ़ जाते हैं कि वह सभी हाथी पर लादने लायक हो जाती हैं। अर्थात उन्होंने सैकड़ों पुस्तकों का ज्ञान अर्जित किया होता है। किंतु वेद - पुराण, पुस्तकें पढ़ने के बाद भी यदि वह राम, अर्थात ईश्वर की भक्ति करना नहीं जानते, तो उनका पढ़ना - लिखना व्यर्थ है। ईश्वर की भक्ति से अनभिज्ञ रहने वाले का सारा ज्ञान शून्य के समान हो जाता है एवं उनकी परीक्षा बर्बाद चली जाती है।

इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि किताबी ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण व्यवहारिक ज्ञान है। कई किताबें पढ़ने के बाद भी यदि व्यक्ति को व्यवहार, आचार, ईश्वर का बोध नहीं हो पाता तो यह सब किताबी ज्ञान अनुपयोगी एवं व्यर्थ सिद्ध होते हैं।

3 ) लेन देन धन अन्न के, विद्या पढ़ने माहिं।
भोजन सखा विवाह में, तजै लाज सुख ताहिं।।

प्रस्तुत दोहे की रचना महान अर्थशास्त्री चाणक्य ने की है। इस दोहे में उन्होंने बताया है कि व्यक्ति के वह कौन-कौन से आचरण हैं, जिनके कारण वह जीवन पर्यंत सुखी रहता है।

आइए जानें। दोहे की पहली पंक्ति में चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति धन धान्य के लेनदेन में, विद्या ग्रहण करने में एवं मित्र के विवाह का भोज करने में लज्जा का त्याग कर निर्लज्ज बन कर आचरण करता है, वही सुखी रहता है।

आइये समझें कवि ने ऐसा क्यों कहा है। धन के व्यवहार में व्यक्ति को लज्जा नहीं करनी चाहिए क्योंकि कई बार धन लेने वाला उसे वापस करने में आनाकानी करता है। यदि व्यक्ति अपने धन को मांगने में संकोच करेगा, तो उसे धन वापस मिलने की संभावनाएं कम हो जाती है। अतः व्यक्ति को धन के लेनदेन के मामले में निर्लज्ज रहना चाहिए, तभी वह लाभ में रहता है।

फिर चाणक्य विद्या के विषय में चर्चा करते हैं। धन के व्यवहार की ही भाँति विद्या ग्रहण करने में यदि व्यक्ति लज्जा व संकोच के कारण गुरु से प्रश्न ना करें, अपनी शंकाओं का निदान न पाए, तो उसे केवल अधूरा ज्ञान प्राप्त होता है। अतः चाहे कितनी भी डांट क्यों ना खानी पड़े, गुरु से चाहे असंख्य प्रश्न ही क्यों ना करने पड़े, व्यक्ति को निर्लज्ज होकर करने चाहिए, तभी वह ज्ञानी बनता है।

और अंत में चाणक्य ने मित्र के बारे में कहा है कि मित्र के विवाह में लज्जा त्याग कर भोजन करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति का अपने मित्र पर पूरा अधिकार होता है। इस सुखद क्षण में संकोच या लज्जा करने से व्यक्ति महा आनंद को पाने से रह जाता है, जो उसे अपने मित्र के विवाह में मिलने वाला होता है। अतः मित्र के विवाह में भोजन करने में निर्लज्ज बन जाना चाहिए। यह तीनों ही व्यक्ति जीवन में सदैव सुखी रहते हैं।

4 ) पढ़ि गुणी ब्राह्मण भये, कीरति भई संसार।
बस्तु की तो समझ नहीं, ज्यों खर चंदन भार।।

प्रस्तुत दोहे में यह संदेश दिया गया है कि यदि व्यक्ति केवल पढ़ लिख लेता है, किंतु वह वास्तव में विषय वस्तु को नहीं समझ पाता तो उसका ज्ञान व्यर्थ है। ऐसे व्यक्ति के लिए उसका ज्ञान उसकी शोभा नहीं बनता, अपितु वह उसके लिए बोझ के समान हो जाता है।

यही स्पष्ट करते हुए कवि कहते हैं कि व्यक्ति बहुत पढ़ लिखकर ब्राह्मण हो गया। अर्थात उसने ब्राह्मण जितना ज्ञान अर्जित कर लिया और उस ज्ञान के बल पर संसार में उसे यश एवं कीर्ति भी प्राप्त हुई। किंतु यदि वह ज्ञान की वास्तविकता को नहीं समझ पाया, तो उसकी स्थिति उस गधे की भांति होगी, जिसकी पीठ पर चंदन लादा जाता है।

गधे की मूढ़ मति के कारण उसे चंदन के गुण एवं महत्व का ज्ञान नहीं होता है। वह सुगंध देने वाली एवं गुणकारी चंदन को केवल एक बोझ समझकर ढोता रहता है। विद्या को रट कर प्राप्त कर लेने वाला व्यक्ति भी इसी प्रकार विद्या के महत्व से अनभिज्ञ रहता है और विद्या उसके लिए बोझ के समान हो जाती है।

जिस ज्ञान से व्यक्ति को मन की शांति, बुद्धिमता, धन एवं सुख मिलना चाहिए था, वह उसके लिए एक भार बन जाता है।

मित्रों, प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कवि ने हमें बहुत बड़ी सीख दी है। यह दोहा बहुत समय पहले लिखा गया था, किंतु आज के समय में भी यह उतना ही प्रासंगिक है। वर्तमान समय में यह दोहा खासकर उन विद्यार्थियों के लिए हितकारी है, जो रटंत विद्या प्राप्त करने पर विश्वास रखते हैं।

विषय वस्तु को केवल रट लेने से बच्चे उसे समझ नहीं पाते, और इसीलिए वह कभी आनंद लेकर पढ़ाई नहीं करते हैं। पढ़ाई केवल उनके लिए बोझ बन कर रह जाती है। वह बेमन से विद्या ग्रहण करते हैं। अतः इस विद्या को कभी अपने जीवन में लागू नहीं कर पाते हैं।

निष्कर्ष :

मित्रों, तो यह थे विद्या पर आधारित कुछ शिक्षाप्रद दोहे। निश्चय ही इन दोहों को पढ़कर आपको बहुमूल्य सीख मिली होगी, जिसको आप जीवन में अवश्य लागू करेंगे। इन दोहों को पढ़कर यह पता चलता है कि कवियों ने जीवन को कितनी गहराई से देखा है। दोहों की रचना कर उन्होंने मनुष्य को बहुत बड़ा मार्गदर्शन प्रदान किया है।

कवि विद्या प्राप्त करने के क्रम में लज्जा का त्याग करने को कहते हैं, साथ ही रटंत विद्या का त्याग करने एवं ज्ञान को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। यहां सब जानकर हम यह समझ पाएंगे कि आज तक विद्या पाने के क्रम में हमने कहां-कहां गलतियां की हैं और इन दोहों के माध्यम से हमें उन्हें सुधारने का मौका मिलता है।


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