मित्रता पर सुंदर दोहे अर्थ सहित

मित्रता पर सुंदर दोहे अर्थ सहित


यार, जिगरी, मीत, दोस्त, भाई, साथी, वीर, और न जाने कितने ही नाम हैं मित्र का संबोधन करने के लिए। जी हाँ दोस्तों, आज की चर्चा का विषय "मित्रता" है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संसार के सबसे सुंदर संबंधों में से एक है मित्रता का संबंध।

यह ऐसा नाता है, जो हर औपचारिकता, हर बंधन से ऊपर है। दोस्ती का रिश्ता ऐसा है, कि लोग इसे निभाने के लिए जान तक की बाज़ी लगाने से भी नहीं चूकते। इतिहास में दोस्तों की कई जोड़ियाँ मशहूर हैं, जैसे अकबर - बीरबल, कृष्ण और सुदामा, राणा प्रताप और उनका घोड़ा चेतक, अर्जुन व कृष्ण आदि।

व्यक्ति के जीवन में मित्र के स्थान का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। जो बातें व्यक्ति परिवार के सदस्यों से नहीं कह पाता वह अपने मित्र से खुलकर, बिना किसी झिझक के सरलता पूर्वक व्यक्त कर पाता है।

इसीलिए कहा जाता है कि एक अच्छे मित्र के बिना जीवन अधूरा है। किंतु एक सत्य यह भी है कि अच्छे मित्र बड़े नसीब से मिलते हैं। कई लोग ऐसे होते हैं, जो केवल स्वार्थ के लिए मित्रता करते हैं। ऐसे मित्र केवल तब तक ही साथ रहते हैं जब तक व्यक्ति सुखी एवं समृद्ध रहता है। इस स्वार्थ सिद्धि की भावना से मित्रता करना मित्रता का अपमान है।

मित्रता का आधार है प्रेम, और प्रेम का आधार है विश्वास, विश्वास की नींव सच्चाई की ज़मीन पर खड़ी है, और सच्चाई हमारे मन में बसती है। इसलिए हमें समझना होगा कि इस पवित्र बंधन को पूरी सच्चाई एवं इमानदारी के साथ निभाना चाहिए। कहीं हम मित्रता निभाने में चूक न जाएँ, इसीलिए कवियों एवं रचनाकारों ने समय-समय पर हमारे मार्गदर्शन के लिए अद्भुत रचनाएं की हैं।

ऐसी ही कुछ रचनाएँ आज हम आपके लिए लेकर आए हैं। प्रस्तुत लेख में आप ऐसे दोहों को जानेंगे जो मित्रता के हर पहलू पर प्रकाश डालती हैं। तो आइए इस लेख को प्रारंभ करें :

1) जिन्ह कें अति मति सहज न आई, ते सठ कत हरि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटै अब गुनन्हि दुरावा।

परिचय :

मित्रता कर लेने से मित्रता का कर्तव्य खत्म नहीं हो जाता। मित्रता का निर्वाह करने के लिए मित्र धर्म को समझना एवं उसका पालन करना आवश्यक है । तभी जाकर यह संबंध सार्थक होता है। मित्र के कर्तव्य क्या हैं? इस बात पर प्रकाश डालते हुए संत तुलसीदास जी ने इस दोहे की रचना की है।

सच्चा मित्र वह है जो दर्पण की तरह तुम्हारे दोषों को तुम्हें दर्शाए, जो अवगुणों को गुण बताए वो तो खुशामदी है। -फूलर

दोहे की व्याख्या :

दोहे की प्रथम पंक्ति में वह कहते हैं कि जिन व्यक्तियों को ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं हुई है, अर्थात जो स्वभाव से ही इस ज्ञान से अपरिचित है, वह मूर्ख, मंदबुद्धि हठ करके किसी से भी मित्रता क्यों करते हैं? जब वह मित्र के धर्म का पालन नहीं कर सकते तो वह मित्र बनने की इच्छा क्यों व्यक्त करते हैं?

वास्तव में सच्चा मित्र तो वही होता है जो अपने मित्र को कुपथ, अर्थात बुरे मार्ग से हटाकर सुमार्ग पर चलाता है, जो उसके गुणों को प्रकट कर उसे उत्साहित करता है और उसके अवगुणों को छुपाता है। यह बात मूर्ख व्यक्ति नहीं समझ सकते, वह तो केवल हठ कर के मित्रता करते हैं। यदि मित्र अपने कर्तव्य का पालन ना कर पाए, तो फिर ऐसी मित्रता का क्या लाभ ?

सीख :

अतः इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति के जीवन में मित्र की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। मित्रता का संबंध जुड़ जाने के बाद व्यक्ति के ऊपर कई जिम्मेदारियां आ जाती है जिसका निर्वाह करने पर ही यह संबंध सार्थक होता है।

सच्चे मित्र के सामने दुःख आधा और हर्ष दुगुना प्रतीत होता है। -जॉनसन

2 ) कहि रहीम संपति सगे बनत बहुत बह रीत।
विपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत।

परिचय :

दुनिया की यही रीत है कि अच्छे वक्त में सभी साथ देते हैं। जब मनुष्य सुखी एवं समृद्ध हो तो सभी उसके हितेषी बन जाते हैं। किंतु विपत्ति पड़ते ही सभी लोग उससे मुंह मोड़ लेते हैं। बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जो विपत्ति में साथ खड़े रहते हैं। कौन हैं वह लोग? रहीम जी ने अपने इस दोहे में इस बात का वर्णन किया है।

व्याख्या

कविवर रहीम कहते हैं कि जब व्यक्ति के पास धन - संपत्ति, वैभव एवं ऐश्वर्य हो तो कई व्यक्ति किसी न किसी नाते उनसे संबंध जोड़कर उनके सगे संबंधी बन जाते हैं। अर्थात संपत्ति के होने पर मनुष्य कई सगे संबंधी रहते हैं। किंतु जब उसका वक्त खराब होता है, जब उस पर विपत्ति पड़ती है तो यह सभी सगे संबंधी पुनः अनजान बन जाते हैं।

कठिन परिस्थितियों में जो साथ निभाता है, वही सच्चा मित्र है। सुख में तो सभी साथ रहते हैं, किंतु दुख आने पर सभी साथ छोड़ देते हैं। सच्चे मित्र की परीक्षा विपत्ति आने पर ही होती है। विपत्ति की कसौटी को पार करके जो आपका साथ दे , वही परम मित्र है। बाकी सब केवल स्वार्थी, लोभी हैं।

सीख :

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अच्छे दिनों में लोगों द्वारा बोली गई मीठी वाणी पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि जब विपत्ति पड़ने पर वही व्यक्ति दुत्कार देता है, तो मनुष्य की आशाएं बिखर जाती है । अतः उसे महत्व दीजिए, जिसने बुरे समय में आपका साथ दिया हो, ना कि उसे जो सामने से केवल मीठी-मीठी बातें कह कर आपको लुभाता हो। सच्चा मित्र वह नहीं है।

मित्र के तीन लक्षण हैं- अहित से हटाना, हित में लगाना, मुसीबत में साथ न छोड़ना, धन के अभाव में विश्व में जो लोग मित्रों का कार्य करते हैं उन्हें ही मित्र समझता हूं...अच्छी स्थिति वाले व्यक्ति की वृद्धि में कौन साथ नहीं देता। -बुद्धचरित

3 ) जौ चाहत, चटकन घटे, मैलो होई न मित्त।
राज राजसु न छुवाइ तौ, नेह चीकन चित्त।।

प्रस्तुत दोहा ब्रज भाषा में कवि बिहारी जी द्वारा लिखा गया है। प्रेम की ही भांति मित्रता का संबंध भी बहुत नाजुक होता है। मित्रता पूरे ह्रदय एवं पूरी सच्चाई के साथ निभाई जानी चाहिए तभी वह स्थाई बनी रहती है। मित्रता जैसे पवित्र बंधन में धन इत्यादि विषय वस्तु का प्रवेश विनाशकारी सिद्ध होता है। कवि इस दोहे में यही बताते हैं।

व्याख्या :

कवि कहते हैं कि यदि आप चाहते हैं कि मित्रता की चटक, यानी कि आभा/ चमक ना घटे और मित्रता मैली ना हो, अर्थात उसमें कोई द्वेष ना उत्पन्न हो और वह पवित्र रहे, तो मित्रता में राजसी विषय वस्तु, अर्थात धन - संपदा इत्यादि का प्रवेश ना होने दें।

जिस प्रकार वस्तु पर तेल लग जाने से उसकी सतह चिकनी हो जाती है, और उस चिकनी सतह पर यदि धूल का स्पर्श मात्र भी हो जाए, तो वस्तु की चमक घट जाया करती है, और वह मैली हो जाती है ।

ठीक उसी प्रकार मित्रता में धन रूपी धूल का स्पर्श मित्र के स्नेह युक्त चिकने मन को मैला कर देता है। जिससे संबंध खराब हो जाते हैं। इसीलिए कवि बिहारी जी कहते हैं कि मित्रता से धन को दूर ही रखा जाए, ताकि मित्रता सदैव पवित्र, एवं मित्र का मन स्नेह से भरा रहे।

सीख :

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता का संबंध बहुत ही कोमल है। इसमें प्रेम, स्नेह के अलावा किसी बाहरी दोष का कोई स्थान नहीं है। अतः मित्रता का निर्वाह सच्चे मन से किया जाना चाहिए। तभी वह स्थाई रह सकती है।

सच्चे मित्र हीरों की तरह कीमती और दुर्लभ मिलते हैं, झूठे मित्र तो पतझड़ की पत्तियों की तरह सर्वत्र मिलते हैं। -अरस्तू

4 ) रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर।
बाढे दिन के मीत हो, गाढे दिन रघुबीर।।

परिचय :

बुरे दिनों में सभी सगे संबंधी, मित्र आदि साथ छोड़ देते हैं। कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति का केवल एक ही होता मित्र है, और वह है स्वयं ईश्वर। उनसे बड़ा ना तो कोई हितेषी है, ना ही कोई मित्र।

व्याख्या :

यही समझाते हुए कविवर रहीम दोहे की प्रथम पंक्ति में कहते हैं कि कठिन दिन आने पर मित्र गायब हो जाते हैं। कष्ट के समय कोई सहायक नहीं होता किंतु अच्छे दिन आते ही वह वापस हाजिर हो जाते हैं।

अर्थात सुख में तो सभी साथ देते हैं किंतु दुख में किसी का सहारा नहीं रह जाता। जो अच्छे एवं बुरे दोनों ही समय में समान रूप से सहायक होते हैं, वह केवल और केवल ईश्वर ही हैं। ईश्वर ही मनुष्य के सब दिनों के मित्र हैं। अब रहीम सच्चे मित्र, अर्थात ईश्वर को पहचान गए हैं, जो बुरे दिनों एवं अच्छे दिनों, दोनों ही समय में रहीम के साथ रहेंगे।

सीख :

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें सांसारिक संबंधों की मोह माया में उलझना नहीं चाहिए। इसके स्थान पर हमें सदैव उस परम ब्रह्म परमात्मा परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।

सम्पन्नता तो मित्र बनती है, किन्तु मित्रों की परख तो विपदा में ही होती है। -शेक्सपियर

5 ) सौ सौ बार विचारिए, क्या होता है मित्र।
खूब जाँचीये पराखिए, उसका चित्त चरित्र।।

परिचय :

यह दोहा डॉ रूप चंद्र शास्त्री "मयंक" द्वारा निर्मित है, जहां उन्होंने इस संदेश को प्रतिपादित किया है कि मित्र की व्यक्ति के जीवन में बहुत बड़ी भूमिका होती है। यदि सही व्यक्ति से मित्रता की जाए, तो उसकी संगति से हमारा व्यक्तित्व निखर कर सोने की तरह चमकने लगता है। किंतु यदि किसी अशिष्ट, दुर्जन एवं अधर्मी से मित्रता कर ली जाए तो उसकी संगति व्यक्ति को पतन के मार्ग पर ले जाती है। इसीलिए कहा जाता है कि सदैव स्वयं से उत्कृष्ट एवं ऊंचे व्यक्ति से ही मित्रता करनी चाहिए।

व्याख्या :

यही समझाते हुए दोहे की प्रथम पंक्ति में रूपचंद्र जी का कहना है कि मित्र क्या होता है, मित्र की परिभाषा क्या है, इस पर सौ बार विचार कीजिए। अर्थात विचार करिए कि मित्र के क्या कर्तव्य होते हैं, मित्र का धर्म एवं उसका आचरण कैसा होता है?

फिर वह कहते हैं कि मित्रता करने से पहले व्यक्ति के मन एवं उसकी चरित्र की भलीभांति जांच परख कर लेनी चाहिए। तभी जाकर मित्रता का हाथ आगे बढ़ाना चाहिए। यदि व्यक्ति का मन साफ एवं चरित्र श्रेष्ठ ना हो तो, ऐसे व्यक्ति से मित्रता का परिणाम विनाशकारी सिद्ध होता है।

व्याख्या :

इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें सदैव सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। अतः मित्रता बहुत सोच समझकर करनी चाहिए क्योंकि मित्र के गुण हमें बहुत प्रभावित करते हैं।

बार बार देखते चलें कि जिन्हें आप अपना मित्र समझ रहें हैं, दूसरों का हक मार कर आगे बढ़ा रहे हैं, जिन्हें घर और दिल में खास जगह दे रहे हैं वो इस लायक हैं भी या नहीं। -आदित्य पाण्डेय

6 ) मथत मथत माखन रही, दही मही बिलगाव।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय।।

परिचय :

प्रस्तुत दोहे में कवि महोदय रहीम जी ने सच्चे मित्र की पहचान को उजागर करते हुए यह संदेश दिया है कि सच्चा मित्र किसी भी परिस्थिति में अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता और मित्र के संकट के सामने स्वयं दीवार बनकर खड़ा हो जाता है।

व्याख्या :

इस दोहे में वह कहते हैं कि जब दही को बार-बार मथा जाता है तो मट्ठा दही से अलग हो जाता है, किंतु माखन कई बार मथने के बाद भी दही का साथ नहीं छोड़ता।

दही मक्खन को अपने शीश पर धारण करता है। कविवर ने मित्र की पहचान भी ऐसी ही बताई है। सच्चा मित्र वही होता है जो कई विपत्ति पड़ने पर भी मित्र का साथ नहीं छोड़ता है एवं हर विपत्ति से मित्र की रक्षा करता है।

निष्कर्ष :

तो मित्रों, मित्रता पर आधारित यह आलेख आपको कैसा लगा? जितने भी दोहे आपने ऊपर पढ़े हैं, उन सभी दोहों में कवियों ने मित्रता के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है एवं मित्रता रूपी पवित्र बंधन को निभाने के लिए हमारा मार्गदर्शन किया है।

यह सभी दोहे मित्र के गुण, उनके कर्तव्य, धर्म एवं मित्रता की परिभाषा को पुनः परिभाषित करते हैं। इन सभी दोहों से हमें बहुमूल्य सीख मिली है, जैसे मित्र वही होता है जो विपत्ति के समय मित्र का साथ ना छोड़े, मित्रता बहुत ही कोमल होती है जिसे सच्चे मन से निभाना पड़ता है, मित्रता का संबंध जुड़ जाने पर व्यक्ति पर कई दायित्व आ जाते हैं, एवं सच्चा मित्र वही है जो सुख के समय साथ रहे ना रहे, किंतु दुख के समय अपने मित्र के साथ अवश्य रहता है।

यह सभी दोहे हमें मित्रता के मार्ग पर पूरी सच्चाई से चलने के लिए नेतृत्व प्रदान करेंगे। आशा है कि इन दोहों से मिली सीख को आप सदैव स्मरण रखेंगे।