मित्रता पर अनमोल दोहों की सीख

मित्रता पर अनमोल दोहों की सीख

  

"मित्र", यह शब्द अपने आप में बहुत गहन अर्थ समेटे हुए हैं। मित्र का मतलब होता है, मीत, अर्थात साथी । साथी, सुख-दुख, अच्छे - बुरे, हर परिस्थिति का । मित्रों, माता-पिता एवं परिवार के बाद व्यक्ति के जीवन में मित्र का स्थान ही है, जो सबसे ऊंचा होता है।

मित्र के गुणों के का बखान करना अत्यंत कठिन है, क्योंकि मित्र के गुण अनंत एवं अतुलनीय हैं। मित्रता वह पवित्र बंधन है जो व्यक्ति को परम सुख का आनंद करवाती है।

एक भला एवं सच्चा मित्र राह से भटके हुए, पथ भ्रष्ट व्यक्ति को भी अपनी अच्छाई से सुमार्ग पर ले आता है । वहीं एक बुरा मित्र, भले व्यक्ति के पतन का भी कारण बन सकता है, इसीलिए, बहुत सोच एवं समझ कर मित्र बनाने चाहिए।

मित्रता पर कई कविताएं, कहानियां लिखी जा चुकी हैं, जिनमें मित्र के अलग-अलग गुणों का महिमामंडन किया गया है। ऐसे ही कुछ दोहे आज हम आपके लिए लेकर आए हैं, जो मित्रता के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। यह दोहे संत कवि कबीर, रहीम एवं संत तुलसीदास द्वारा निर्मित हैं।

आइए जाने इन दोहों को और इनके भावार्थ को समझें :

1 ) देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।
विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सत मित्र गुण एहा।

प्रस्तुत दोहे के रचैता महान संत, एवं रामायण का सरल भाषा में अनुवाद कर रामचरितमानस के रूप में जन-जन तक पहुंचाने के लिए विश्वविख्यात हैं। तुलसीदास जी ने कई रचनाएं की हैं, जिनमें दोहे भी शामिल है।

प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने मित्र के आचरण का उल्लेख किया है। वह कहते हैं कि सच्चे मित्र को लेने अथवा देने के समय मन में कोई भी शंका नहीं रखनी चाहिए।

मित्र से आवश्यकता के समय कुछ भी मांगा, अथवा मित्र को आवश्यकता के समय कुछ भी दिया जाना चाहिए। मित्र सदैव ही अपने बल, शक्ति एवं क्षमता के अनुसार अपने मित्र की सहायता एवं उसका हित करते हैं।

उनके सामर्थ्य के अनुसार उनसे जो भी बन पड़ता है, वह निर्मल मन से उसका निर्वाह करते हैं। विपत्ति पर जाने पर वह अपने मित्र को पहले से भी अधिक, सौ गुना स्नेह एवं प्रेम करते हैं एवं उनका सहारा बनते हैं।

श्रुति, अर्थात वेद कहते हैं कि एक श्रेष्ठ एवं उत्तम मित्र का यही गुण है।

इस दोहे के माध्यम से हमें यहां संदेश प्राप्त होता है कि हमें अपने मित्रों की सदैव सहायता करनी चाहिए एवं विपत्ति पड़ने पर उन्हें और भी अधिक प्रेम करना चाहिए, ना कि उन्हें दुत्कार ना चाहिए।

2 ) जलहिं मिलाई रहीम ज्यों, कियो आपु सग छीर।
अगबहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर।

प्रस्तुत दोहा महान कविवर रहीम द्वारा लिखा गया है। रहीम ने बड़ी ही सुंदरता से दूध एवं पानी का उदाहरण देते हुए यह संदेश दिया है कि मित्र का आचरण कैसा होता है।

वह कहते हैं कि दूध में जल मिला देने पर जल स्वयं को दूध में पूरी तरह घुला मिला लेता है। जल दूध में इस प्रकार मिल जाता है कि मानो अब दूध को जल से पृथक करना असंभव हो गया हो।

किंतु जब दूध को आग पर चढ़ाया जाता है, तो पानी ऊपर की ओर आ जाता है और आग की सारी तपिश अकेले ही सहन करता है। जब तक दूध आग पर चढ़ा रहता है, तब तक अंतिम तक पानी स्वयं ही पूरी ताप सहन करता रहता है।

रहीम ने पानी का स्थान मित्र को देते हुए यह कहा है कि पानी का आचरण ही सच्चे मित्र का आचरण है। सच्चे मित्र की यही पहचान है कि वह स्वयं को मित्र के चरित्र में पूरी तरह घुला मिला लेता है।

किंतु विपत्ति पर जाने पर अपने मित्र का सारा संकट एवं कष्ट अपने ऊपर ले लेता है और मित्र पर एक आज तक भी नहीं आने देता है।

इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि एक मृत सच्चे मित्र का यही कर्तव्य है कि वह अपने मित्र की विपत्ति को स्वयं की विपत्ति समझ कर उसका सामना करें एवं हर प्रकार से अपने मित्र की रक्षा करें।

3 ) गिरिये परवत शिखर ते , परिये धरनि मंझार।
मूरख मित्र न कीजिए , बुडो काली धार।

इस दोहे के रचयिता महान संत कवि कबीर दास जी है। प्रस्तुत दोहे का निर्माण कर उन्होंने यह संदेश हम तक पहुंचाया है कि कैसे व्यक्ति से मित्रता की जानी चाहिए।

मित्र का चुनाव बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिए एवं सदैव मित्र स्वयं से अधिक बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ गुणों वाला होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति से मित्रता करने की ओर इंगित करते हुए कविवर कहते हैं कि :

चाहे आप पर्वत के शिखर से ही क्यों ना गिर रहे हो, या फिर आप मझधार के बीचों-बीच पड़ कर फंस ही क्यों नहीं गए हो, चाहे आप को कीचड़ में ही धँस जाना पड़े, किंतु तब भी एक मूर्ख से मित्रता ना करें, उसकी सहायता ना ले।

अर्थात परिस्थितियां कितनी भी विषम हो, किंतु एक मूर्ख व्यक्ति से मित्रता करना कदापि उचित नहीं है क्योंकि उसकी मित्रता इन विपत्तियों को और भी अधिक बढ़ा देती है । इसीलिए कहते हैं कि एक मूर्ख मित्र से एक बुद्धिमान शत्रु अच्छा होता है। क्योंकि मूर्ख मित्र अपनी संगति में सामने वाले का विनाश कर बैठता है।

तो इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि मित्रों सदा स्वयं से ऊंचा होना चाहिए एवं बुद्धिमान होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति की मित्रता का त्याग कर देना ही सबसे उत्तम है ।

4 ) आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहीगति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेही भलाई।

उपायुक्त दोहा महान संत एवं परम ज्ञानी संत श्री तुलसीदास जी द्वारा निर्मित है। इस दोहे में उन्होंने हमें यह बताया है कि जो सच्चे मित्र नहीं है, अर्थात मित्र होने का केवल ढोंग करते हैं, वह मित्रता के योग्य कदापि नहीं हैं।

ऐसे मित्रों का त्याग करना उचित है। यही बताते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मित्र आगे से सामने में बना-बना कर मीठे बोल बोलता है, झूठी प्रशंसा एवं केवल दिखावे के लिए मित्रता की बड़ी-बड़ी बातें करता है ।

और वही पीठ पीछे, अर्थात आपकी अनुपस्थिति में मन में आपके प्रति बुरा भावना रखता है, आपके लिए उसके मन में कपट, ईर्ष्या, द्वेष, एवं अहित जैसे भाव निहित हैं, तो वह मित्र मित्रता के योग्य नहीं है।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे मित्र के मन की चाल सांप की चाल के समान होती है । तात्पर्य यह है कि उसका मन कपट से भरा हुआ होता है। ऐसे को मित्र अर्थात बुरे मित्र को त्याग देने में ही भलाई है।

इस दोहे से हमें यह सीख मिली है कि केवल सामने से मीठे वचन बोलने वाला, और मन से ठीक विपरीत सोच रखने वाले व्यक्ति सच्चे मित्र नहीं होते। उनका अवश्यंभावी एवं तत्काल रुप से त्याग कर देना चाहिए। सच्ची मित्र मन में आपके लिए हित की कामना रखते हैं।

निष्कर्ष

तो पाठकों, आज इन दोहों से आपने जाना कि मित्रता का निर्वाह करने के लिए स्वयं में श्रेष्ठ गुणों को समाहित करना अति आवश्यक है। निस्वार्थ भाव से निभाई गयी मित्रता ही सच्ची मित्रता है।

आपने यह भी जाना कि एक मित्र का विपत्ति के समय किस तरह साथ निभाना चाहिए। मुर्ख व्यक्ति की मित्रता न करने की सीख भी आपको मिली है।

इस सीख को आप जीवन के हर कदम पर लागू करते रहेंगे। इन दोहों का तो यही उद्देश्य है, कि वह व्यक्ति को सही मार्गदर्शन प्रदान करे, ताकि व्यक्ति सदैव सही मार्ग पर चलता रहे।

आज के दोहों से मिली सीख को हमेशा याद रखें और इनसे अपने जीवन को और भी बेहतर बनाएं।


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