मन पर आधारित दोहे अर्थ सहित

मन पर आधारित दोहे अर्थ सहित

  

मित्रों, आज की चर्चा का विषय है मन। मन विचारों एवं भावनाओं का निवास स्थान है। वह मन ही है, जो हमारे द्वारा किए गए कार्यों को निर्धारित करता है। जिस काम में हमारा मन लगता है हम उसे करना चाहते हैं और जिस कार्य के लिए हमारा मन सहमति नहीं देता हम वह नहीं करना चाहते हैं। अर्थात, हमारी सभी क्रियाएं मन पर आधारित है।

किंतु यह भी सत्य है कि मन के मुताबिक सदैव नहीं चलना चाहिए। मन ना होने पर कार्य ना करना एवं आलस्य का आलिंगन करना मनुष्य की सफलता के मार्ग में बाधा बनता है। अतः मन व्यक्ति के नियंत्रण में होना चाहिए। तभी जाकर वह सफलता पा सकता है। महापुरुषों ने अपनी रचनाओं में भी सदैव मन पर नियंत्रण स्थापित करने की बात कही है। आज हम ऐसे ही दोहे लेकर आए हैं जो मन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। आइए जानें :

1 ) कबीर यह मन लालची, समझै नहिं गंवार।
भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।

मन की शक्ति अथाह एवं अनंत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह बहुत शक्तिशाली है। किंतु इसकी प्रवृत्ति अत्यंत ही चंचल एवं मूढ़ है, जिसके कारण यह सदा चकाचौंध एवं विषय वस्तु में आकर्षित हो जाता है। मन की इसी प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए प्रस्तुत दोहे में कविवर कबीर दास जी ने कहा है कि यह मन लालची एवं लोभी है। यह पागल उस गवार की तरह है जो स्वयं तो अपना हित नहीं जानता, किंतु समझाने पर भी नहीं समझता है।

इसे जहां भोग - विलास, भौतिक विषय दिखाई पड़ता है, यह बस वही चल पड़ता है। जब प्रभु का भजन, ईश्वर की भक्ति का समय आता है तब यह आलसी बन जाता है। किंतु भोजन करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। खाने के समय इसका सारा आलस दूर हो जाता है। कविवर ने संदेश दिया है कि मन विषय वस्तु में ही लिप्त रहना चाहता है।

सांसारिक चकाचौंध, धन - ऐश्वर्य, मनोरंजन आदि इसे बहुत लुभाते हैं। यह सब त्याग कर ईश्वर की भक्ति इससे नहीं की जाती। अतः यह भक्ति करने में आलस की चादर ओढ़ लेता है और प्रभु का नाम नहीं जपता। जिस ईश्वर में इसका हित छुपा है यह, उन्हें पानी में ही आलस दिखाता है। इसीलिए कवि ने इसे लालची और गवार कहा है।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यह हमारा दायित्व है कि हम मन को गलत दिशा में भटकने ना दें और उसे सही दिशा में लेकर आए। ऐसा केवल ज्ञान प्राप्ति के द्वारा ही संभव है। सांसारिक विषय वस्तु से ध्यान हटाकर हमें ज्ञान अर्जित करने की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

2 ) तन की भूख सहज है, तीन पाव की सेर ।
मन की भूख अनंत है, निगलै मेरु समेरू।।

प्रस्तुत दोहे में कवि ने इस ओर इंगित किया है कि मन की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। इसे जितना अधिक प्राप्त होता है यह उतने ही अधिक की कामना करने लग जाता है। मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं तो सीमित हैं, किंतु मानसिक रूप से हर क्षण जन्म ले रही इच्छाओं के कारण मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं रह पाता।

यही समझाने के लिए दोहे की पहली पंक्ति में कवि कहते हैं कि तन, अर्थात शरीर की भूख मिटाना सहज है। यह तीन पाव या 1 किलो से मिटाई जा सकती है। इतना मिल जाने पर शरीर की क्षुधा शांत हो जाती है और वह तृप्त हो जाता है। किंतु मन की भूख ऐसी है, जो कभी खत्म नहीं होती है। यह क्षुधा विशालकाय सुमेरु पर्वत को भी निगल सकती है परंतु यह तब भी शांत नहीं होती।

अर्थात मन उन इच्छाओं के भंडार कोष के समान है जिसमें हर पल नई महत्वाकांक्षा के बीज जन्म लेते रहते हैं। यह कभी तृप्त नहीं होता। अतः मन की इस भूख पर अंकुश लगाना अति आवश्यक है। मनुष्य को मन को नियंत्रित कर संतोष करना सीखना चाहिए।

3 ) कबहुक मन गगनहि चढ़ै, कबहु गिरै पाताल।
कबहु मन अनुमनै लगै, कबहु जाबै चाल।।

मन में हर समय हजारों लाखों विचारों जन्म लेते रहते हैं। मानों मन एक सागर की तरह हो, जिसमें विचारों की लहर उठती ही रहती है। इसका ना कोई और है ना कोई छोड़। यह एक पल में ही हजारों मील की दूरी तय कर लेता है। अतः मन बहुत चंचल है। मन की इसी चंचलता का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि मन कभी आकाश की ऊंचाई तक चढ़कर अनंत आकाश में विचरण करने लगता है, और कभी गहरे पाताल में जाकर गिर पड़ता है।

अर्थात कभी यह श्रेष्ठ विचारों का सृजन करता है तो कभी यह नीच विचारों पर चिंतन करने लग जाता है। कभी यह भी परमात्मा परमेश्वर में खुद को रमा कर उनके गहन चिंतन में लीन हो जाता है, तो कभी इसके ठीक विपरीत सांसारिक विषय वस्तु के चिंतन में डूब जाता है। यह मन बहुत चंचल है। यह कब किस ओर चल पड़े कोई नहीं जानता। कवि ने हमें यह सीख दी है कि हमें मन की चंचलता को समझ कर इस पर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए। तभी हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर पाएंगे।

4 ) नहाये धोये क्या हुआ, जो मन का मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाय।।

कवि ने इस दोहे के माध्यम से यह संदेश प्रतिपादित किया है कि व्यक्ति के मन की स्वच्छता सबसे आवश्यक है। बाहरी रूप से अच्छे कर्म, भक्ति, पूजा-पाठ, कर्मकांड इत्यादि करने का कोई लाभ नहीं है यदि मन में यह सारे भाव ना हो। मन से छल, कपट, मिथ्या आदि जैसे दोषों को दूर कर दया, भक्ति, सत्यव्रत जैसे गुण धारण कर लिये जाए, अर्थात मन को स्वच्छ किया जाए तो बाहरी आडंबरों की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

दोहे की पहली पंक्ति में कवि कहते हैं कि नहाने धोने से, शरीर का मैल साफ करने से क्या फायदा ? जब मन का मैल धुल ही नहीं पाया। नहाने से व्यक्ति का शरीर बाहरी रूप से गंदगी से साफ हो जाता है किंतु मन की गंदगी, मन के दोष नहीं दूर होते। जिस प्रकार मछली सदैव जल में रहती है किंतु जल के संपर्क में रहने के बावजूद भी उसके शरीर की दुर्गंध नहीं जाती। अतः दुर्गंध मछली के अंदर का दुर्गुन है, जो बाहर से मिटाया नहीं जा सकता।

इसी प्रकार मनुष्य के स्वयं को बाहरी रूप से स्वच्छ कर लेने से उसके अंदर के दोष नहीं मिटते। हमें दोहे से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने मन पर ध्यान देना चाहिए और इसे सब प्रकार के दोषों से मुक्त करना चाहिए। मन साफ हो जाने पर बाहरी रूप से हम स्वयं स्वक्ष हो जाएंगे।

5 ) मन कंजर महमंत था, फिरत गहिर गंभीर
दुहरि, तिहरी, चै री परी गयी प्रेम ज़ंजीर।।

इस दोहे में कवि ने मन एवं प्रेम के संबंध की व्याख्या की है। दोहे की पहली पंक्ति में वह कहते हैं कि यह मन नशे में धुत मस्त हाथी की तरह था, जो मद में कभी इधर तो कभी उधर भागता फिरता रहता था । इसे नियंत्रित करना बहुत कठिन था। किंतु जब हाथी को दो, तीन और चार जंजीरों से जकर दिया गया तब वह शांत हो गया।

यहां हाथी का तात्पर्य मन से है और जिन जंजीरों से इसे जकरा गया है, वह प्रेम रूपी बेड़िया है। अर्थात जब मन को प्रेम की प्राप्ति होती है तब वह इधर उधर विचरण करना छोड़ कर शांत हो जाता है। अस्थिर चित्त को शांत करने के लिए प्रेम ही सबसे बड़ा उपाय है।

6 ) तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होय।।

कवि ने एक बार फिर बाहरी आडंबरों के स्थान पर मन से सच्ची भक्ति करने की सलाह दी है। वह कहते हैं कि तन से तो सभी योगी बन जाते हैं। शरीर पर भगवा वस्त्र धारण कर लेना, हाथों में जपमाला रख लेना, राम नाम का जाप करना, माथे पर तिलक आदि लगा कर योगी का वेश धारण करना सरल है। किंतु जो मन से योगी हो, ऐसा विरले ही कोई मिलता है। सब केवल बाहरी वेशभूषा बदल कर खुद को योगी कहने लगते हैं और सिद्धि पाने की चेष्टा करते हैं। किंतु उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं होती।

इसी पर कबीर कहते हैं कि यदि व्यक्ति के मन में योग - वैराग्य विद्यमान हो, तो उसे सहज भाव से सिद्धि की प्राप्ति हो जाएगी। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि बाहरी परिवर्तन केवल छलावा है। असली बदलाव तो मन से ही आता है। इसलिए सभी बाहरी आडंबरों को त्याग कर मन से भक्ति करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

निष्कर्ष :

इन सभी दोहों में मन के गुण एवं अवगुण की सुंदरता से व्याख्या की गई है। महापुरुषों ने हर दोहे में यह सीख दी है की मन की प्रवृत्ति चंचल होती है। अतः इसे नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। यदि मन को नियंत्रित कर लिया जाए तो निश्चय ही मनुष्य जीवन में सफल होता है।


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