प्रेम पर महा पुरुषों के अनमोल दोहे

प्रेम पर महा पुरुषों के अनमोल दोहे

  

पाठकों, आज की चर्चा का विषय है प्रेम। आज के लेख में हम प्रेम पर लिखे गए दोहों को जानेंगे। इन दोहों में प्रेम के हर पहलू पर प्रकाश डाला गया गया है। मित्रों, प्रेम संसार के हर कण में उपस्थित है । यह प्रेम ही है जिसने इस संसार को गति एवं सुंदरता प्रदान की है। हमारे सभी संबंध प्रेम पर ही टिके हुए हैं।

यदि प्रेम ना रहे, तो मनुष्य के जीवन का कोई आधार नहीं होगा। अतः प्रेम रूपी इस सुंदर भावना को हमें सदैव निश्चल होकर निभाना चाहिए।

प्रेम का असली स्वरूप क्या है ?

सच्चा प्रेम कैसा होता है ?

सच्चे प्रेम की प्रेरणा हमें किससे लेनी चाहिए?

प्रेम के मार्ग पर चलना इतना कठिन क्यों है ?

निश्चल भाव से प्रेम कैसे किया जाए? एवं प्रेम में हमारा क्या कर्तव्य है?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर आज इन दोहों के माध्यम से आप प्राप्त कर सकते हैं। तो आइये इन दोहों को पढ कर इनसे प्रेम की शिक्षा ग्रहण करें।

1) धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अनत वसि, कहां भौरे का भाय।।

व्याख्या :

मित्रों, प्रेम निश्चल एवं निस्वार्थ होता है। स्वार्थ की भावना आते ही प्रेम का अस्तित्व ही खत्म हो जाता है। प्रेम ना तो पुराना होता है, और ना ही बदलता है। यही प्रेम का सत्य स्वरूप है। प्रेम के इसी स्वरूप को समझाने के लिए रहीम जी ने प्रस्तुत दोहे की रचना की है और प्रथम पंक्ति में कहा है कि मीन, अर्थात मछली का प्रेम धन्य है, जो जल से बिछड़ते ही अपने प्राण त्याग देती है।

कोई भी वस्तु मछली के जीवन में जल का स्थान नहीं ले सकती। अतः मछली की अनन्य प्रीति को शत-शत नमन है। किंतु भौंरा पुष्प के रस का आस्वादन करता है, और पुष्प से रस्म खत्म होते ही उड़ कर दूसरे पुष्प पर बैठ जाता है। एक तरफ मछली है जो अपने प्रियतम से एक क्षण का भी विरह नहीं सहन कर सकती है और दूसरी तरफ भवरा है, जो अपने प्रियतम को छोड़कर बड़ी सहजता से कहीं और उड़ जाता है।

अतः मछली का प्रेम निस्वार्थ है। किंतु भौंरा स्वार्थ सिद्ध होते ही अन्यत्र वास करने लग जाता है। भौंरे का प्रेम प्रेम नहीं , बल्कि केवल छलावा है । मछली की इस अनन्य प्रेम से हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रेम में व्यक्ति स्वयं को नहीं देखता । उसके लिए उसका प्रेमी ही सब कुछ होता है ।

2 ) रहिमन प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।

प्रस्तुत दोहा रहीम जी द्वारा लिखा गया है जिसमे उन्होंने बताया है कि ऐसी प्रीति, यानी प्रेम की सराहना की जानी चाहिए जिसमें दो प्राणियों के बीच का अंतर पूर्णतः समाप्त हो जाता है । अर्थात जहां दो मिलकर एक हो जाते हैं। इस प्रेम की तुलना उन्होंने हल्दी एवं चूने से करते हुए कहा है कि जिस प्रकार हल्दी एवं चूना एक साथ मिला दिए जाने पर अपने व्यक्तिगत रंग को छोड़कर एक नया रंग बना लेते हैं, उसी प्रकार प्रेम में दो आत्माएं अपने-अपने अलग अस्तित्व को छोड़ क एक दूसरे से एकाकार हो जाती हैं।

प्रेम में दो प्राणियों के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता। प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रेम में हमें अपना अहंकार, स्वार्थ आदि त्याग कर स्वयं को प्रेमी के अनुरूप ढाल लेना चाहिए। तभी जाकर प्रेम सार्थकता की पराकाष्ठा तक पहुंच पाएगा I

3 ) रहिमन खोजे ईंख में, जहां रसनि की खानि।
जहां गांठ तहँ रस नहीं, यही प्रीत में हानि।।

उपर्युक्त दोहे में कविवर रहीम जी ने कहा है कि उन्होंने ईख को भलीभांति जांच परख लिया है। ईंख का निरीक्षण करके उन्हें यह पता चला कि यह पूरी तरह रस से भरा हुआ, अर्थात रस की खान है। किंतु इसमें एक दोष है कि जहां-जहां गांठ है, वहां-वहां रस अनुपस्थित है। गांठ वाला स्थान मधुर नहीं है। अब उन्होंने इस ईंख की तुलना प्रेम से की है और कहा है कि ईंख की ही भांति प्रेम संबंध स्नेह रस से परिपूर्ण होते हैं।

प्रेम के हर रूप में मधुरता का वास है किंतु प्रेम की हानि वहां होती है, जहां गांठ उत्पन्न हो जाए। जिस प्रकार ईंक में गांठ की स्थान पर रस नहीं होता, उसी प्रकार प्रेम में गांठ पड़ जाने पर प्रेम भाव नष्ट हो जाता है। प्रेम में गांठ पड़ने का तात्पर्य है प्रेम में छल, कपट अविश्वास का आ जाना। झूठ, छल - कपट प्रेम में गांठ बना देते हैं, जिससे धीरे-धीरे प्रेम का अस्तित्व खत्म होने लगता है।

4 ) प्रीति पुरानी न होत है, जो उत्तम से लाग।
सौ बरसा जल मैं रहे, पत्थर न छोड़े आग ।।

कबीर दास जी द्वारा रचित यह है दोहा इस संदेश को प्रतिपादित करता है कि सच्चा प्रेम वह है, जहाँ एक बार किसी से मन लग गया तो अंतिम सांस तक व्यक्ति का मन उसी की कामना करता है। यदि समय के साथ प्रेम भाव कम होने लगे तो वह सच्चा प्रेम नहीं है क्योंकि प्रेम कभी पुराना नहीं होता।

यही बताने के लिए प्रथम पंक्ति में कबीरदास जी कहते हैं कि यदि भली प्रकार से प्रेम किया जाए, अर्थात सच्चे मन एवं हृदय से यदि प्रेम किया जाए तो वह प्रेम कभी पुराना नहीं होता। समय, परिस्थितियां, लोग इत्यादि प्रेम की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते हैं।

प्रेम की स्थिति को कवि पत्थर एवं आग के उदाहरण से समझाते हैं। वह कहते हैं कि सौ वर्षों तक भी पानी में रहने पर पत्थर से आग अलग नहीं होती। पत्थर के भीतर अग्नि सदैव विद्यमान होती है। ठीक उसी प्रकार सौ वर्षों का वियोग भी प्रेमी के मन से प्रेम की भावना नहीं निकाल पाता है । सच्चा प्रेम चिरकाल तक जीवित रहता है I

5 ) रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ बन जाए ।।

प्रस्तुत दोहे में कविवर रहीम ने प्रेम की तुलना धागे से की है और कहा है कि धागे की भांति प्रेम संबंध भी अत्यंत कोमल एवं नाजुक होते हैं। इसे झटके से तोड़ देना अच्छा नहीं है। जिस प्रकार धागा टूट जाने पर जुड़ नहीं पाता और यदि जुड़ भी जाए तो उसमें गांठ बन जाती है। ठीक इसी प्रकार प्रेम संबंध भी टूटने पर जुड़ते नहीं और यदि जुड़ भी जाए तो व्यक्तियों के मन में गांठ बनी रह जाती है।

भाव यह है कि प्रेम का निर्वाह बहुत सावधानी से करना चाहिए। प्रेम में ज़रा भी छल - कपट, झूठ, अविश्वास होने से इसमें गांठ बन जाती है और यह पुनः कभी अपने उस स्वरूप में वापस नहीं आ पाता।

6) यह न रहीम सराहिये, लेन देन की प्रीति।
प्राणन बाजी राखिए, हार होय कै जीति।।

प्रस्तुत दोहे में कविवर रहीम जी ने कहा है कि जिस प्रेम में लेनदेन, अर्थात देने के बदले में लेने की भावना निहित हो, रहीम ऐसे प्रेम की सराहना नहीं करते। असली प्रेम तो वह है, जिसमें प्राणों की बाजी तक लगा दी जाती है। यह सोचें बिना, कि हार होगी या जीत, व्यक्ति प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।

वह यह आशा नहीं रखता कि उसके द्वारा सब कुछ न्योछावर कर देने के बदले में प्रेमी उसके लिए कितना और क्या करेगा । वह बदले में किसी भी चीज की आशा नहीं रखता। प्रेम का असली स्वरूप यही है, जहां प्रेमी निस्वार्थ भाव से अपने प्रेमी के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देता है।

7) रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
बिछलत पाँव पीपीलिका, लोग लदावत बैल।।

प्रस्तुत दोहे में कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम की राह, प्रेम का मार्ग बहुत ही फिसलन भरा है। इस पर चलना बहुत कठिन है। एक चींटी, जिसका वजन ना के बराबर है वह भी इस मार्ग पर फिसल जाती है। और हम मनुष्यों को देखिए, जो अपने साथ बैल पर लादकर इस मार्ग पर चलना चाहते हैं। यह संभव नहीं है।

प्रस्तुत दोहे का भाव यह है कि हम मन में स्वार्थ की इच्छा रख कर प्रेम कभी नहीं कर सकते। प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को लोग, लालच, अहंकार, स्वार्थ आदि सभी भावनाओं को स्वयं से निकालना होगा।

8 ) प्रीति बहुत संसार में, नाना बिधि की सोय।
उत्तम प्रीति सो जानिय, राम नाम से होय।।

प्रस्तुत दोहे में कविवर कबीर दास जी ने कहा है कि संसार में बहुत प्रकार के प्रेम होते हैं। विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न वस्तुओं या प्राणियों से प्रेम होता है। किंतु कबीर दास जी के अनुसार उत्तम प्रेम वही है जो राम के नाम से हो, अर्थात ईश्वर से हो। कहने का भाव यह है कि ईश्वर से किया गया प्रेम ही संसार में प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप है।

निष्कर्ष :

तो मित्रों, प्रस्तुत लेख में कवियों ने प्रेम का बड़ी ही सुंदरता से वर्णन किया है। हमने जाना की प्रेम का निर्वाह अत्यंत कठिन है, इस मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को पूर्णतः निश्छल होना पड़ता है।

स्वार्थ की भावना का प्रेम में कोई स्थान नहीं है एवं प्रेम करने वाला व्यक्ति प्रेमी के लिए अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करता। हमने यह भी जाना कि संसार में प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप वह है जो परमात्मा परम ब्रह्म परमेश्वर से किया जाता है। आशा है कि इन दोहों को जानने के बाद आप अपने सभी सम्बन्धों को निश्चल मन से निभाएंगे।


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