नीतिपरक रहीम के दोहे

नीतिपरक रहीम के दोहे

  

जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि!

उपयुक्त पंक्तियों में रवि का तात्पर्य सूर्य से है, अर्थात जहां तक सूर्य की किरणें भी नहीं पहुंच पाती, वहां तक एक कवि पहुंच जाता है। कवि की कल्पना शक्ति इतनी अद्भुत होती है कि वह जीवन के उन पहलुओं तक पहुंच जाता है, जहां मानव नहीं पहुंच पाता। अपनी इसी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके वह मानव जीवन के गूढ़ रहस्य को भी बड़ी ही आसानी एवं सुंदरता से व्यक्त कर जाता है। ऐसे ही एक कवि की चर्चा आज हम करने जा रहे हैं। वह और कोई नहीं, बल्कि महान कवि रहीम है।

मुगल कालीन भारत में पैदा हुए रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खान - ए - खाना है। वह एक महान कवि, दार्शनिक, विचारक, एवं कलाप्रेमी होने के साथ-साथ निपुण योद्धा भी थे। कवि रहीम भक्ति काल और रीति काल के मिलन बिंदु पर है। उन्होंने भक्ति, नीति और श्रृंगार का बहुत सुंदर निरूपण किया है। उनकी रचनाओं में शांत, श्रृंगार एवं हास्य रस मिलते हैं। दोहा, बरवै, सवैया, कवित्त, तथा सोरठा उनकी लेखन शैली का हिस्सा हैं।

उनकी रचनाएँ ब्रज भाषा में मिलती हैं, जो अत्यंत सरल, स्वाभाविक एवं बोधगम्य हैं। रहीम विशेष रूप से अपने नीतिपरक दोहों के लिए विख्यात हैं। रहीम को लोक व्यवहार का बहुत अच्छा ज्ञान था, तभी तो उनके लिखे दोहे कहावतें और लोकोक्तियों का रूप ग्रहण कर चुके हैं। यही नहीं, आज तक रहीम के काव्य लोगों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हैं।

तो आइए आनंद लेते हैं रहीम के कुछ सुंदर दोहों का, जो हमें नीति - रीती का ज्ञान प्रदान करते हैं।

1) जो रहीम ओछो बढै, तौ अती ही इतराय
प्यादे सौं फरजी भयो, टेढो टेढो जाय

प्रस्तुत दोहे में रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी कारणवश अपने गुण, शक्ति, एवं सामर्थ्य से अधिक कुछ पा लेता है, वह घमंडी हो जाता है, तथा अपने मूल व्यवहार का त्याग कर इतराने लगता है। इस दोहे में रहीम द्वारा शतरंज के खेल के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों के मनोविज्ञान को स्पष्ट किया गया है।

यदि किसी साधारण व्यक्ति को किन्ही कारणों से कोई ऊंचा पद, पैसा इत्यादि मिल जाता है तो वह उस प्रकार ही इतराने लगता है जैसे कि शतरंज के खेल में प्यादा फर्जी बनते ही टेढ़ा टेढ़ा चलने लगता है । वह अपने पहले की स्थिति भुला कर एवं अपने सहज व्यवहार को त्याग कर घमंड से भर जाता है, और अन्य लोगों से सीधे मुंह बात नहीं करता।

2) जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय,
बारे उजियारो लगै, बढै अंधेरो होय

प्रस्तुत दोहे में रहीम ने "बारे" और "बढै" के श्लेश से दीपक और कपूत की तुलना की है। घर में कुपुत्र अर्थात नालायक बेटे की बचपन की हरकतें जितनी अच्छी लगती हैं, बड़े होने पर उसकी वही हरकतें अत्यंत कष्ट दाई एवं दुखदाई हो जाती हैं।

रहीम कहते हैं कि दीपक की और परिवार में उत्पन्न पुत्र की गति एक समान होती है। जिस प्रकार दीपक के प्रदीपत् होने पर प्रकाश फैलता है, अर्थात वह प्रसन्नता का कारण होता है, और बढ़ जाने पर अंधेरा हो जाता है, अर्थात वह व्यक्ति को असमर्थ और असहाय बना देता है, और इस तरह दुख का कारण बन जाता है।

उसी प्रकार नालायक पुत्र भी अपनी चेष्टाओं और शरारतों के कारण बाल्य काल में तो अच्छा लगता है, किंतु बड़े होने पर उसकी वही हरकतें अत्यंत दुखदाई हो जाती हैं। बचपन में माता-पिता बच्चे की वात्सल्यमयि क्रीराओं और चेष्टाओं से प्रसन्न होते हैं, किंतु बड़े होकर अगर यही बालक वैसी ही शरारतें करता रहे, तो कपूत सिद्ध होता है, और दुख का कारण बन जाता है।

3) टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार
रहिमन फिरि फिरि पहिये, टूटे मुक्ताहार

इस दोहे में सज्जनों तथा अपने लोगों, अर्थात स्वजनों के रूठ जाने पर बार-बार मनाने की बात कही गई है। प्रस्तुत दोहे में रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार मोतियों के हार के टूट जाने पर मोतियों को फेंका नहीं जाता, बल्कि उन्हें बार-बार धागे में पिरो कर फिर से हार बना दिया जाता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ लोगों तथा अपने प्रिय लोगों, कुटुंबी, संबंधी, मित्र आदि के रूठने अथवा नाराज होने पर उन्हें हर बार मना लेना चाहिए।

यदि मोतियों के हार के टूट जाने पर मोतियों को पुनः गूँथा न गया, तो हार खंडित हो जाता है, उसी प्रकार यदि अपने प्रिय जनों को ना मनाया गया, अथवा सुलह न की गई तो संबंध टूट जाते हैं।

4 ) रहीमन अंसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कही देइ

रहीम ने आंसुओं द्वारा मन का दुख प्रकट होने की बात के उदाहरण से घर की बात घर के भीतर ही रखने का संकेत किया है।

रहीम कहते हैं कि आंखों से आंसू निकल कर व्यक्ति के हृदय के दुख को व्यक्त कर देते हैं, और वह करें भी क्यों नहीं! जब किसी को घर से निकाला जाएगा तो वह घर का भेद दूसरों तक पहुंचाएगा ही। यहां दो बातों का उल्लेख आवश्यक है, शास्त्रों में मानव देह का वर्णन घर के रूप में किया गया है जिसके 10 दरवाजे हैं जिनमें 2 दरवाजे दोनों नेत्र हैं।

इस दोहे का उदाहरण राम कथा में मिलता है। राम कथा में रावण द्वारा अपने छोटे भाई विभीषण को अपमानित करके लंका से निकाल देने का प्रसंग है। घर से निकाले जाने पर विभीषण राम से आ मिला और उसी ने राम को लंका के समस्त भेद तथा रावण की मृत्यु का रहस्य भी बताया। इसी से जनता में कहावत भी मशहूर है " घर का भेदी लंका ढाए।"

5 ) वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग
बांटनवारे के लगै, ज्यों मेहंदी को रंग

इस दोहे को पढ़कर आप इतना तो समझ गए होंगे कि यह दोहा परोपकारी मनुष्यों के विषय में है । आप कुछ लोगों को यह कहते सुनते होंगे कि क्या रखा है परोपकार में। उन लोगों को यह दोहा अवश्य पढ़ना चाहिए।

रहीम ने कहा है कि वह मनुष्य धन्य है, जिनका शरीर सदा दूसरों के उपकार में लगा रहता है। यहां रहीम ने ऐसे मनुष्यों की तुलना मेहंदी से की है। जिस प्रकार मेहंदी बांटने वाले के हाथों में भी मेहंदी का रंग चढ जाता है, उसे अलग से मेहँदी लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार उपकार करने वाला मनुष्य भी सदा सुशोभित रहता है।

6) यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय

बैर, अर्थात शत्रुता, प्रेम, किसी कार्य को करने का कौशल व्यक्ति के जन्मजात गुण नहीं होते, और ना ही अल्प समय में प्राप्त होते हैं, बल्कि यह धीरे-धीरे ही बढ़ते हैं, अर्थात केवल निरंतरता से ही इनका विकास होता है।

आइए प्रेम का उदाहरण ले। प्रेम अर्थात प्रीति भी समय के साथ ही गाढी होती है। किसी की क्षणिक समीपता से जो सकारात्मक भाव हमारे मन में होता है, उसे अक्सर प्रेम कह दिया जाता है, किंतु वह प्रेम नहीं महज़ आकर्षण होता है। प्रेम साहचर्यजन्य होता है, अर्थात साथ रहने से पैदा होता है।

प्रेम वैर के विपरीत पूर्ण स्वीकार की भावना है। हम जिससे प्रेम करते हैं उसके लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं और यह भावना केवल लंबे समय तक साथ रहने से ही उत्पन्न होती है। इसीलिए रहीम ने कहा है कि बैर, प्रेम, अभ्यास और कीर्ति, यह चीजें कोई भी व्यक्ति जन्म से प्राप्त नहीं करता बल्कि यह समय के साथ-साथ विकसित होती हैं।

7) काज पड़े कछु और है, काज सरै कछु और
रहिमन भाँवर के भये, नदी सेरावत मौर

इस दोहे में कवि ने "कछु और" कहकर व्यवहार को स्पष्ट ना करते हुए भी बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया। यह वक्रोक्ति का अच्छा उदाहरण है। सीधे - सीधे बात ना कह कर किसी अन्य प्रकार से उसे व्यक्त करना वक्रोक्ति कहलाता है।

इस दोहे का प्रसंग है काम पड़ने और काम निकल जाने पर मनुष्य के व्यवहार में बदलाव। काम पड़ने पर लोग दूसरी तरह व्यवहार करते हैं, वह मीठी वाणी बोलते हैं एवं आदर सम्मान देते हैं। किंतु काम खत्म होते ही उनका व्यवहार पूरी तरह बदल जाता है।

जिस व्यक्ति से वह मीठी वाणी बोल रहे थे, उस व्यक्ति से सीधे मुंह बात तक नहीं करते। रहीम लोगों के इस दोहरे व्यवहार की तुलना विवाह के वक्त सर पर लगाए जाने वाले मौर अर्थात मुकुट से करते हैं । मौर के बिना विवाह संपन्न होना असंभव होता है। किंतु एक बार विवाह हो जाने पर उस मोड़ को धारा में प्रवाहित कर दिया जाता है, जो कभी सर पर विराजमान था। इसी प्रकार काम निकलते ही व्यक्ति बदल जाता है।


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