धन पर महाकवियों के शिक्षाप्रद दोहे

धन पर महाकवियों के शिक्षाप्रद दोहे

  

संसार में ऐसा कौन है जो धन पाने की इच्छा नहीं रखता? कौन धनवान नहीं बनना चाहता ? धन ऐश्वर्य से भरी जिंदगी हर कोई जीना चाहता है। अतः धन पाने के लिए जीवन भर व्यक्ति प्रयास करता है। यह सत्य है कि जीवन यापन के लिए आवश्यक संसाधनों को धन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। किंतू आजकल के समय में धन हर चीज़ से बड़ा हो गया है। मनुष्य धन पाने की लालसा में इतना अंधा हो गया है, कि उसे और कुछ भी नहीं दिखता। इस धन के लिए हमने अपनी भावनाओं, आधारों, सिद्धांतों संबंधों, सबको ताक पर रख दिया है।

इस बात का एहसास हमें तब होता है जब जीवन भर अथक प्रयास द्वारा इकट्ठा किया धन एक दिन हमारे हाथों से निकल जाता है। तो मित्रों, इससे पहले कि आप भी इस सत्य को पहचानने में देर कर दें, आइए इन दोहों से सीख लें, जहां कवियों ने धन एवं इससे जुड़ी कई बातों का उल्लेख किया है :

1) विपति भए धन ना रहे, होय जो लाख करोड़।
नभ तारे छिपी जात है, ज्यों रहीम भए भोर।।

प्रस्तुत दोहा कवि रहीम जी द्वारा रचित है, जहां उन्होंने यह संदेश दिया है कि मनुष्य जिस धन के पीछे जीवन भर भागता रहता है, वह धन कभी एक जगह नहीं टिकता। संचय की हुई धन - संपत्ति कभी भी हाथों से निकल सकती है। इसका कोई भरोसा नहीं है।

लोग धन को विकट परिस्थितियों का साथी समझते हैं और इसीलिए विपत्ति के समय के लिए धन को बचा कर रखते हैं। किंतु विपत्ति पड़ने पर बचाया हुआ धन भी चला जाता है। फिर भी मनुष्य माया मोह में पड़कर धन के पीछे भागता रहता है।

यही समझाते हुए दोहे की पहली पंक्ति में कवि रहीम कहते हैं कि जब व्यक्ति पर विपत्ति आती है, तो धन भी नहीं रहता। चाहे लाखों करोड़ों की धन संपत्ति ही क्यों न संचय कर ली गई हो, विपत्ति के समय एक पाई भी नहीं बचती।

जिस प्रकार रात्रि में आकाश में लाखों-करोड़ों से भी अधिक तारे जगमगाते रहते हैं, किंतु भोर अर्थात सुबह होते ही वह सभी विलीन हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार की विपत्ति पड़ने पर व्यक्ति के पास से धन खो जाता है।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि विपत्ति का सामना करने के लिए धन का संचय करना व्यर्थ है क्योंकि यह धन भी विपत्ति के समय साथ छोड़ देगा। अतः पुण्य का संचय करना चाहिए। प्रेम भाव एवं हितैषियों का संचय करें, ताकि मुश्किल वक़्त में लोग आपकी सहायता करें।

2 ) कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।

यह दोहा संत कवि कबीर दास जी द्वारा रचित है। इस दोहे का संदेश विशेषकर उन लोगों के लिए है, जो दिन-रात धान के संचय में लगे रहते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि सभी को एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना है, एवं इतना संचय किया हुआ धन वह अपने साथ नहीं ले जा सकते। यह सारा धन यही पीछे छूट जाएगा।

यही समझाते हुए कबीर दोहे की पहली पंक्ति में कहते हैं कि हे मनुष्य ! उस धन का संचय करो जो आगे काम आएगा। अर्थात उस धन का संचय करना चाहिए जो मरने के बाद मनुष्य के काम आए। आगे कवि कहते हैं कि अपने सिर पर पोटली लादकर आखिर किसे जाते हुए देखा है? यहां सिर पर रखी पोटली का तात्पर्य धन से है, एवं जाने का तात्पर्य मृत्यु को प्राप्त होने से है।

अतः सांसारिक धन को मृत्य के उपरांत अपने साथ कोई नहीं ले जा सकता, क्योंकि व्यक्ति संसार में अकेला आता है, और संसार से अकेला ही जाता है।अतः इस सांसारिक धन का संचय करना व्यर्थ है। इसके स्थान पर हमें उसे इकट्ठा करना चाहिए जो मरने के बाद हमारे उपयोग में आएगा। मनुष्य को मरने के बाद अपने कर्मों का हिसाब देना होता है, अतः उसे पुण्य का संचय करना चाहिए।

3 ) साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधू नाहिं।।

धन वह भौतिक वस्तु है, जो अन्य सभी सांसारिक विषय वस्तुओं का आधार बनती है और उन्हें आकर्षित करती है। धन पाने की कामना व्यक्ति के भौतिक संसार में प्रवेश का पहला चरण होता है, जहां से व्यक्ति विषय वस्तु के मोह जाल में पूरी तरह से फंस जाता है। किंतु साधु अर्थात सिद्ध पुरुषों के लिए धन का कोई मूल्य नहीं होता है।

प्रस्तुत दोहे में कवि कबीर दास जी ने यही स्पष्ट किया है। दोहे की पहली पंक्ति में वह कहते हैं कि साधु भाव के भूखे होते हैं। अर्थात वह प्रेम, दया एवं भक्ति भाव पाना चाहते हैं। उन्हें धन की कोई भूख या लालसा नहीं होती है। धन प्राप्ति कदापि साधु का ध्येय नहीं हो सकता। किंतु जो व्यक्ति धन की भूख, अर्थात कामना रख कर लालच में घूमता फिरता है, वह सच्चा साधु नहीं हो सकता। क्योंकि धन भौतिकता की पहचान है और साधु भौतिकता से परे होते हैं। अतः सच्चा संत वही है, जिसे धन की कोई चाह नहीं है।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने जीवन में धन से अधिक भावनाओं को मूल्य देना चाहिए। वर्तमान काल में व्यक्ति के जीवन की प्राथमिकता केवल धन प्राप्ति बन गई है। इसके सामने भावनाओं का मूल्य कम हो गया है। अतः धन के पीछे भागना बंद करें।

4 ) कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुॅं धापै नाहि।
तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।।

इस दोहे में कवि कबीरदास जी कहते हैं कि अत्यधिक धन पाने की कामना असंतोष को जन्म देती है। दोहे की पहली पंक्ति का आशय यह है कि जिन लोगों की खोपड़ी उल्टी होती है, अर्थात जिन लोगों की बुद्धि भ्रष्ट होती है, वह लोग धन से कभी संतुष्ट नहीं होते।

उनके पास चाहे कितनी भी संपदा क्यों ना आ जाए, वह उस संपदा से सुख नहीं पा सकते क्योंकि उन्हें सदैव और अत्यधिक पाने की इच्छा सताती रहती है। ऐसे असंतुष्ट व्यक्ति सोचतें हैं कि कब तीनों लोगों की संपदा उनके घर आ जाए। अतः पूरे संसार की दौलत पाकर भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिलेगी।

इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि बहुत अधिक धन पाने का लोभ व्यक्ति को कभी सुखी नहीं रहने देता। ऐसे लोगों के घर में पड़ा धन उन्हें कभी सुख नहीं दे पाता। धनाढ्य होने के बाद भी ऐसे लोग जीवन भर धन को तरसते रहते हैं। ऐसी कामना का भला क्या लाभ जो व्यक्ति को सुख ही ना दे पाए? अतः व्यक्ति को संतोषी बनना चाहिए।

निष्कर्ष :

इन दोहों को पढ़कर हमने यह जाना की वर्तमान काल में भले ही जीवन यापन के लिए धन अति आवश्यक है, किंतु धन को सबसे बड़ी प्राथमिकता बना लेना इंसान की भूल है। अत्यधिक धन पाने की कामना लालच, लोभ, छल, कपट इत्यादि को जन्म देती है, जिससे व्यक्ति के चरित्र का पतन होता है। अतः महापुरुषों की सीख को हमेशा याद रखें। उन्होंने हमेशा यही कहा है कि व्यक्ति को धन की अत्यधिक कामना नहीं रखनी चाहिए। धन से अधिक महत्व ईश्वर की भक्ति एवं अध्यात्म का है।


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