गोस्वामी तुलसीदास जी के मार्गदर्शक दोहे

गोस्वामी तुलसीदास जी के मार्गदर्शक दोहे

  

जब-जब रामायण की चर्चा होती है, तब तक मुख पर एक नाम स्वतः ही आ जाता है - और वह है गोस्वामी तुलसीदास जी का। श्री रामचरितमानस की रचना कर रामायण की पावन वाणी को जनसामान्य तक पहुंचाने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। वह भारतीय साहित्य के महान साहित्यकार एवं एक श्रेष्ठ साधक थे। तुलसीदास भक्तिकाल के सबसे अधिक विख्यात कवि थे जिन्होंने रामचरितमानस के रूप में एक महान ग्रंथ की रचना की। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित रामायण की तुलसीदास जी ने सरल एवं सहज भाषा में रचना की, जिसमें उन्होंने दोहे एवं चौपाइयों के माध्यम से श्री राम जी के जीवन के हर प्रसंग का सुंदरता पूर्वक वर्णन किया है। इस प्रकार उन्होंने इस महान ग्रंथ को जन-जन तक पहुंचाया। गोस्वामी तुलसीदास जी को इसी कारणवश वाल्मीकि का अवतार भी कहा जाता है।

इसके अतिरिक्त वाल्मीकि जी ने कई सारी सुंदर रचनाएं की हैं, जिनमें जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, ब्रज भाषा में रचित गीतावली, रामलला नहछु, बरवै रामायण, दोहावली, कृष्ण गीतावली, वैराग्य संदीपनी एवं विनय पत्रिका शामिल हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण काशी में बिताए, जहां उन्होंने विनय पत्रिका की रचना की। तुलसीदास केवल एक महान रचनाकार नहीं अपितु प्रचंड विद्वान भी थे, जिन्होंने वेदों एवं धर्म - कर्म की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान श्री राम की भक्ति में बिता दिया।

तुलसीदास जी का श्री राम की भक्ति में लीन होने के पीछे भी एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। तुलसीदास जी अपनी धर्म पत्नी रत्नावली से अत्यंत प्रेम करते थे। पत्नी के विरह में जब तुलसीदास जी व्याकुल हो उठे तब उन्होंने अंधेरी घनी रात में ही अपनी भार्या से भेंट करने की ठानी और तूफानी रात में ही निकल पड़े। तुलसीदास जी को इतने संकट उठाकर अपने निकट देखकर भार्या रतनावली अत्यंत दंग रह गई और उनके मुख से यह शब्द निकले -

" अस्थि चर्म मय देह यह, तासों ऐसी प्रीति

नेकू जो होती राम से, तो काहे भव - भीत "

पत्नी द्वारा इस दोहे को सुनते ही तुलसीदास जी के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और उसी दिन से उन्होंने ब्रम्हचर्य का प्रण कर लिया । उस दिन से गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान श्री राम की भक्ति में लीन हो गए और उन्होंने संसार को रामचरितमानस के रूप में एक अमूल्य भेंट प्रदान की।

तुलसीदास जी ने अपने दोहों में मानव को नीति एवं रीति का ज्ञान प्रदान किया है। सरल एवं सहज भाषा में उन्होंने मनुष्य को नैतिकता की शिक्षा एवं सही राह पर चलने का मार्गदर्शन प्रदान किया है आइए जानते हैं तुलसीदास जी द्वारा रचित इन 5 सुंदर दोहों को :

1 ) तुलसी तृण जलकूल कौ, निर्बल निपट निकाज
कै राखै कै संग चलै, बाँह गहे की लाज

प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने दूब, अर्थात घास के गुणों में मानवीकरण कर अद्भुत संदेश का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं कि नदी के किनारों पर स्वतः ही पनपने वाली घास अत्यंत निर्मल एवं निकाज, अर्थात किसी काम में ना आने योग्य होती है। ना ही उसमें बल होता है, ना ही वह मनुष्य के किसी काम ही आती है। किंतु यदि कोई व्यक्ति नदी में डूबने लगता है और उस घास को पकड़ लेता है, तो वहीं निर्मल एवं अयोग्य घास संकटग्रस्त व्यक्ति को बचाने का हर संभव प्रयास करती है। अंततः वह घास या तो व्यक्ति की रक्षा करने में सफल हो जाती है और व्यक्ति के प्राणों की रक्षा कर लेती है, अथवा टूटकर व्यक्ति के साथ ही वेग में बह जाती है। दोनों ही स्थितियों में वह उसका साथ नहीं छोड़ती है।

तुलसीदास जी ने इस दोहे के माध्यम से यह संदेश दिया है कि व्यक्ति का चरित्र भी इस घास की भांति होना चाहिए। सच्ची मित्रता यही है, जहां मित्र की रक्षा हेतु हमें पूरी निष्ठा से अपना सर्वस्व लगा देना चाहिए, अर्थात उनकी विपत्ति को अपनी विपत्ति समझ कर गले लगा लेना चाहिए और अपने प्रिय जनों को विपत्ति से उबारने के लिए हर संभव प्रयत्न करना चाहिए।

2 ) सचिव वैद्य गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगहिं नास

प्रस्तुत दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने मंत्री, वैद्य एवं गुरु के गुणों पर प्रकाश डाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि गुरु, मंत्री एवं वैद्य को सदैव हितकारी वचन ही कहने चाहिए, भले ही वह वचन कटु क्यों ना हो। यदि किसी प्रकार के भय के कारण मंत्री राजा से, वैद्य रोगी से, एवं गुरु शिष्य से अप्रिय वचन ना कहें, अपितु उनके सामने प्रिय शब्द कहने लगे, जो कि ना सत्य हो, ना ही उनके लिए हितकारी हो। अर्थात यह शब्द यदि केवल भय के प्रभाव में कहे गए हो, तब इन तीनों व्यक्तियों, अर्थात राजा, रोगी एवं शिष्य का पतन निश्चित है।

रचयिता ने ऐसा इसीलिए कहा है क्योंकि यह तीनों व्यक्ति मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राजा के निर्णय मंत्री के वचनों पर, रोगी का उद्धार वैद्य के कथनों पर, एवं शिष्य की विद्वता गुरु के वचनों पर ही निर्भर करती है। यदि यह तीनों अप्रिय शब्द सुनने का धैर्य ना रखें तो केवल उनके मन की संतुष्टि के लिए बोले गए प्रिय वचन वास्तव में इनके लिए हितकारी सिद्ध होते हैं।

मंत्री की झूठी प्रशंसा से राजा मद में चूर होकर नाश को प्राप्त होता है, वैद्य द्वारा स्थिति छुपाए जाने पर रोगी मृत्यु को प्राप्त होता है, एवं गुरु द्वारा शिष्य की त्रुटियां ना बताए जाने पर शिष्य अज्ञानी बनता है। अर्थात लोगों को अप्रिय वचन सुनने का धैर्य धारण करना चाहिए, अन्यथा उनका नाश निश्चित है।

3 ) तुलसी साथ विपत्ति के, विद्या विनय विवेक
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक

तुलसीदास जी कहते हैं कि जब मनुष्य विपत्ति से घिर जाता है, तब उसके साथ गुण, जो उसके भीतर विद्यमान होते हैं, वही उसे उस विपत्ति से उबारने में सहायक सिद्ध होते हैं। तुलसीदास ने बताया है कि वह 7 गुण हैं, - व्यक्ति द्वारा अर्जित की गई विद्या (शिक्षा), मनुष्य की विनम्रता अर्थात विनय, व्यक्ति द्वारा धारण किया गया धैर्य अर्थात विवेक, व्यक्ति का आत्मबल अर्थात साहस , सुकृति अर्थात जीवन में किए गए अच्छे कर्म, सत्यव्रत अर्थात सदैव सत्य बोलने का प्रण, और अंत में ईश्वर में निष्ठा एवं दृढ़ विश्वास। यह 7 गुण हैं, जो यदि किसी व्यक्ति में विद्यमान हो तो व्यक्ति कितनी ही घनघोर आपदा से उबर पाने में सक्षम होता है।

तुलसीदास जी ने इन 7 गुणों को विपत्ति का साथी बताया है जिनके द्वारा व्यक्ति विपत्ति पर विजय पा लेता है। ज्ञान द्वारा वह सही निर्णय लेता है , विनम्रता द्वारा वह अच्छे संबंध स्थापित करता है एवं दयालु बनता है, धैर्य धारण करने पर वह सकारात्मक रहता है एवं व्याकुल होने से बचता है, साहस द्वारा वह स्थिति का सामना कर पाता है, अच्छे कर्म उसे पुण्य का भागी बनाते हैं, सत्य के पथ पर अग्रसर रहने से वह सभी शंकाओं से मुक्त रहता है, एवं ईश्वर पर विश्वास उसके अन्य सभी गुणों को बल प्रदान करते हैं।

4 ) दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण

तुलसीदास जी ने इस दोहे में दया को धर्म के स्तंभ एवं अहंकार को पाप के जन्मदाता के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि दया भाव धर्म का आधार है। बिना दया के मनुष्य धर्म के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। वह मनुष्य धार्मिक नहीं है जिसके मन में दया भाव एवं व्यवहार में विनम्रता ना हो। ठीक इसके विपरीत, जिस प्रकार दया धर्म का आधार है उसी प्रकार अहंकार भाव आप को जन्म देता है। जो व्यक्ति अहंकार करता है वह समस्त प्रकार की बुराइयों को अपने अंदर स्थान देता है, एवं घोर पाप का भागी बनता है। अहंकार में आकर मनुष्य ना जाने कितने ही ऐसे कार्य कर बैठता है, जिससे उसे पाप का भागी बनना पड़ता है। अतः तुलसीदास जी ने इस ओर इशारा कर मनुष्य को संभलने का संकेत दिया है।

जो मनुष्य इस तथ्य को जान गया हो की दया से धर्म स्थापित होता है, एवं अहंकार पाप की जड़ बनता है, उसे कभी भी दया नहीं छोड़नी चाहिए। तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण है तब तक मनुष्य को दया नहीं छोड़नी चाहिए।

5 ) बड़े सनेह लघुन्हा पर करहीं , गिरी निज सिरनि सदा तृण धरहिं
जलधि अगाध मौलि बह फेन, संतत धरनि धरत सिर रेनू

प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने महान लोगों के चरित्र के बारे में बताया है। महान लोग अपने से नीचे लोगों के साथ सदैव विनम्र एवं प्रेम पूर्ण व्यवहार करते हैं। इस तथ्य को उजागर करने के लिए उन्होंने पर्वत, सागर एवं धरती का उदाहरण दिया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि बड़े अपने छोटो पर स्नेह रखते हैं, महान गिरी अर्थात पर्वत अपने शीश पर घास धारण किये रहता है, सागर, जो अथाह है, वह भी अपने मस्तक पर फेन को स्थान देता है, एवं यह धरती जो सभी प्राणियों का आधार है, उसके सतह पर भी धूल जमा रहती है। अर्थात महान लोग अपने से नीचे लोगों को सदैव शीश पर रख कर प्रेम करते हैं, तभी वह महान हैं।


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