गुरु की महिमा बताते दोहे

गुरु की महिमा बताते दोहे

  

जीवन में गुरु के स्थान को ईश्वर से भी ऊंचा बताया गया है। क्योंकि गुरु ही वह व्यक्ति है जो ईश्वर से हमारा परिचय कराते हैं। आज की पीढ़ी गुरु के पद एवं उनकी महानता से अनभिज्ञ दिखाई पड़ती है। ऐसे में हमें आवश्यकता है एक ऐसे मार्गदर्शन की जो हमें सही मायनों में गुरु के व्यक्तित्व का परिचय दें। समस्त सांसारिक विधि विधानओं का बोध कराने वाले, विद्या प्रदान करने वाले, एवं मनुष्य को महान बनाने वाले गुरु के साथ कैसा आचरण हो, उनका आदर कैसे किया जाए, शिष्य के जीवन में गुरु का क्या महत्व है?

यह सभी जानना आवश्यक है। इस संदर्भ में इतिहास के कई महान कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएं की हैं जो गुरु की महिमा को प्रतिपादित करते हैं। कई महान कवियों ने बड़ी ही सरल भाषा में दोहों के रूप में गुरु की महत्ता एवं महानता का व्याख्यान किया है। तो आइए जानते हैं कुछ ऐसे ही दोहों को :

1 ) गुरु पारस को अंतरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लयो महंत।


प्रस्तुत दोहा महान संत कबीर द्वारा लिखा गया है। इस दोहे में पारस पत्थर की व्याख्या की गई है। आप जानते होंगे कि पारस मणि वह चमत्कारिक पत्थर है जिसके स्पर्श मात्र से सामान्य पत्थर भी सोने में परिवर्तित हो जाता है। कबीर यहां कहते हैं कि गुरु एवं पारस पत्थर में अंतर है, दोनों भिन्न हैं, यह बड़े-बड़े ज्ञानी एवं संत, सभी जानते हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि पारस मनी तो केवल लोहे को सोने में बदल देती है, किंतु गुरु में इतनी शक्ति होती है कि वह व्यक्ति को महंत बना देता है । अर्थात महान बना देता है। तात्पर्य यह है कि गुरु अपनी छत्रछाया में ज्ञान प्रदान कर लोहे के सामान सामान्य शिष्य को सोने के समान महान एवं महान एवं मूल्यवान बना देता है।

2 ) गुरु अनंत तक जानिए, गुरु की ओर न छोड़
गुरु प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर

प्रस्तुत दोहा रहीम द्वारा लिखा गया है। वे कहते हैं कि गुरु के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। जिस प्रकार सागर का पार नहीं पाया जा सकता उसी प्रकार गुरु भी अनंत हैं। इसीलिए कवि कहते हैं कि अपने गुरु से निरंतर ज्ञान प्राप्त करते रहें, क्योंकि गुरु के ज्ञान का कहीं अंत नहीं है। आप जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे उतना ही अधिक गुरु के ज्ञान का विस्तार होता जाएगा।

आगे रहीम गुरु को प्रकाश पुंज की भांति बताते हैं जो जो अज्ञानता से भरे शिष्य के जीवन को अपने प्रकाश से प्रकाश में ही गुरु कर देते हैं। गुरु उस भोर (सुबह) की तरह है जो अंधेरी रात के बाद आती है।

3 ) परमेसर सूं गुरु बड़े, गावत वेद पुराने।
सहजो हरि घर मुक्ति है, गुरु के घर भगवान।।

यह दोहा सहजोबाई द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत दोहे में बाई जी बता रही हैं कि गुरु का स्थान एवं गुरु की महिमा इस संसार में सबसे बड़ी है। गुरु ही है जो मनुष्य को ईश्वर तक पहुंचने के लिए पुल का काम करता है। गुरुकृपा लेने का तात्पर्य है ईश्वर को पा लेना। यही समझाने के लिए वे कहती हैं कि सभी ग्रंथ, वेद एवं पुरानी यही बताते हैं कि परमेश्वर अर्थात ईश्वर से भी अधिक बड़े गुरु हैं।

गुरु का स्थान ईश्वर से ऊंचा रखा गया है। हरि अर्थात अर्थात ईश्वर को प्राप्त कर लेने से मोक्ष और परम स्थान मिलता है, और गुरु के मिल जाने पर स्वयं ईश्वर मिल जाते हैं। अर्थात ईश्वर को पाकर हम मुक्ति को प्राप्त करते हैं । जिस ईश्वर को पा लेने के लिए समस्त प्राणी व्याकुल हैं, वह ईश्वर गुरु के मिल जाने से प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि गुरु ही हैं जो अपने अनंत ज्ञान से व्यक्ति को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग प्रशस्त करते हैं, और उसका मार्गदर्शन करते हैं।

4 ) गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान
तीन लोक की संपदा, सो गुरु दिनही दान

यहाँ कवि ने गुरु की महानता की व्याख्या करते हुए कहा है कि गुरु से कुछ भी मांगने पर गुरु अपना सब कुछ दान कर देते हैं। इस दोहे में गुरु को दाता कहा गया है एवं शिष्य को याचक। शिष्य को ज्ञान चाहिए होता है एवं ज्ञान देने वाला गुरु ही है।

कबीर कहते हैं कि गुरु के समान कोई दाता नहीं है और शिष्य के सामान को याद याचक अर्थात मांगने वाला नहीं है। शिष्य द्वारा विद्या एवं ज्ञान की याचना करने पर महान दाता स्वरूपी गुरु तीनों लोगों की संपदा रूपी ज्ञान दान कर देते हैं। यहाँ ज्ञान को तीनों लोगों की संपदा बताया गया है क्योंकि इस संसार में ज्ञान ही वह साधन है जिसके द्वारा अन्य सभी सुख सुविधाएं एवं संप्दाय पाई जा सकती हैं।

निष्कर्ष

तो देखा मित्रों आपने, हिंदी साहित्य को अपनी रचनाओं से धन्य करने वाले इन महान ज्ञानियों ने गुरु के महत्व एवं उनके स्थान की किस प्रकार व्याख्या की है। यह सभी दोहे हमें यह सीख देते हैं कि गुरु का सदैव आदर करना चाहिए एवं गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान को सदैव स्मरण रखना चाहिए।

जिस व्यक्ति पर गुरु की छत्रछाया नहीं होती, वह व्यक्ति दिशा विहीन एवं लक्ष्य विहीन होता है। गुरु की मुख से निकली हर वाणी अमृत की बूंदों के समान है, जो निरंतर शिष्य के तन एवं मन को निर्मल करती रहती है। अतः आप अपने जीवन में अपने सभी गुरुओं का धन्यवाद करें एवं जीवन पर्यंत उनके प्रति आदर भाव बनाए रखें।


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