कवि रहीम के बहुमुल्य दोहे अर्थ सहित

कवि रहीम के बहुमुल्य दोहे अर्थ सहित

  

पाठकों, आज हम आपके लिए जन-जन के बीच प्रसिद्ध महा कवि रहीम जी द्वारा रचित दोहे लेकर आए हैं। हिंदी साहित्य में रहीम द्वारा रचित दोहों को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। इनके दोहे धर्म, भक्ति, नीति - रीति पर आधारित है ।

इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खान - ए - खाना था जो धर्म से मुसलमान एवं मुगल सल्तनत से संबंध रखते थे। इनके पिता का नाम बैरम खां एवं इनकी मां का नाम सुल्ताना बेगम था। पिता बैरम खां की मृत्यु के बाद रहीम मुगल सुल्तान बादशाह अकबर के संरक्षण में रहे, जहां उन्होंनें उनके गुरु मोहम्मद अमीन से तुर्की, अरबी, एवं फारसी जैसी भाषाओं की शिक्षा प्राप्त की। रहीम का काव्य, कविता एवं कला में भी अत्यंत रुझान था।

रहीम ने दोहों के रूप में मानव जीवन के हर पहलू को छूते हुए अद्भुत रचनाएं की है। उन्होंने भक्ति में धर्मनिरपेक्षता का अद्भुत उदाहरण भी प्रस्तुत किया है क्योंकि वह धर्म से तो मुसलमान थे किंतु वह भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों की सीख का भी जिक्र किया है।

उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं रहीम सतसई, फुटकर बरवै, राग पंचाध्यायि, सवैये, नायिका भेद , मदनाष्ट, नगर शोभा, संस्कृत काव्य इत्यादि। आइये अब जानें रहीम जी द्वारा रचित कुछ उत्कृष्ट दोहों को :

1 ) तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियहि व पान।
कही रहीम पर काज हित, संपत्ति संचही सुजान।।

दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। कुछ व्यक्ति अपनी संपत्ति, धन एवं संपदा का उपयोग परमार्थ एवं परोपकार के लिए करते हैं। वहीं कुछ लोग धन की एक कौड़ी भी किसी को देने से कतराते हैं। ऐसे लोगों के लिए उनका धन केवल उनके सुख एवं ऐश्वर्य का साधन होता है। प्रस्तुत दोहे में रहीम ने उस श्रेणी के व्यक्तियों की बात की है जो अपनी संपत्ति को परोपकार में लगाते हैं।

दोहे की पहली पंक्ति में कविवर कहते हैं कि तरु, अर्थात वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते। वृक्ष में लगे फल मानव एवं पशुओं द्वारा उपभोग किए जाते हैं। वृक्ष फलों को प्राणियों की क्षुधा शांत करने के लिए दान कर देती है। इसी प्रकार सरोवर, यानी कि तालाब अपने अंदर भरे हुए जल को स्वयं नहीं पीता। तालाब अपने जल को उदारता से प्राणियों की प्यास बुझाने में लगा देता है। रहीम कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति का आचरण भी ऐसा ही होता है।

जिस प्रकार वृक्ष एवं तालाब अपने फलों एवं जल से दूसरों का भला करता है, उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति अपने द्वारा संचय की गई संपत्ति को दूसरों के हित में लगा देते हैं। वह इस धन से स्वयं भोग विलास का आनंद नहीं उठाते, बल्कि परोपकार करते हैं।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि असली उदारता वह है जो वृक्ष एवं तालाब द्वारा की जाती है। हमें भी इनका अनुसरण करते हुए लोभ एवं स्वार्थ को त्याग कर अपने हित से पहले जनहित को प्राथमिकता देनी चाहिए।

2 ) धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय।।


उपर्युक्त दोहे में यह संदेश प्रतिपादित किया गया है कि बड़े होने का कोई लाभ नहीं है यदि आपके बड़प्पन से दूसरों का हित ना हो। यही समझाते हुए कविवर दोहे की प्रथम पंक्ति में कहते हैं कि पंक, अर्थात कीचड़ का पानी धन्य है, जिसे पीकर असंख्य छोटे-छोटे कीड़े मकोड़े, जीव-जंतु आदि अपनी प्यास बुझा कर स्वयं को तृप्त करते हैं।

कीचड़ का पानी इन छोटे छोटे जीव जंतुओं को जीवन प्रदान करता है । अतः रहीम इस पानी की प्रशंसा करते हैं। किंतु उस समुद्र की प्रशंसा कौन करेगा? रहीम समुद्र की प्रशंसा में कोई शब्द नहीं कहते। क्योंकि वह किसी की प्यास बुझाने में सक्षम नहीं है। समुद्र अथाह एवं अनंत जल का भंडार है, किंतु इस भंडार का क्या लाभ ? क्या उपयोग ? जो संसार में किसी की भी प्यास नहीं बुझा सकता।

भावार्थ यह है कि ऐसे गरीब मनुष्य अधिक उदार है, जिनके पास कुछ ना होने पर भी वह दूसरों का हित करते हैं। किंतु ऐसे धनी व्यक्ति के धनी होने का क्या लाभ जब उसके द्वारा किसी का हित न होता हो । अतः बड़प्पन पद एवं प्रतिष्ठा से नहीं, अपितु कर्मों से निश्चित होती है।

3 ) रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।


प्रस्तुत दोहे में रहीम ने पानी की विभिन्न अर्थों में व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि पानी के बिना सब कुछ व्यर्थ है। यहां पानी शब्द का तीन संदर्भ में एवं तीन अर्थों में प्रयोग किया गया है। पहला प्रयोग मनुष्य के लिए किया गया है जहां पानी का अर्थ विनम्रता से है। रहीम कहते हैं कि मनुष्य में पानी, अर्थात विनम्रता सदैव विद्यमान होनी चाहिए। विनम्रता के बिना मनुष्य का कोई मूल्य नहीं है।

पानी का दूसरा अर्थ आभा अथवा चमक है जिसे मोती के संदर्भ में प्रयोग किया गया है। रहीम कहते हैं कि मोदी में यदि चमक ना हो, तो उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। जितनी अधिक चमक, उतनी ही अधिक मोती की कीमत होती है।

पानी शब्द का तीसरा अर्थ है, जल जिसे रहीम जी ने चून, अर्थात आटे के लिए प्रयोग किया है। वह कहते हैं कि आटे में पानी मिलाए जाने के बाद ही वह कोमल, अर्थात नम्र बनता है। यदि आटे में पानी कम हो जाए, तो आटे की गुणवत्ता एवं मूल्य दोनों कम हो जाते हैं। जिस प्रकार मोती एवं आटे का मूल्य पानी बिना नहीं हो सकता, उसी प्रकार पानी अर्थात मनुष्य का कोई मूल्य नहीं है।

तो देखा आपने मित्रों, किस प्रकार कविवर ने प्रस्तुत दोहे में विनम्रता की महत्व को समझाया है। शास्त्रों में विनम्रता को मनुष्य का आभूषण कहा गया है। विनम्र स्वभाव वाला व्यक्ति हर स्थान पर आदर पाता है। वहीं जिस व्यक्ति के व्यवहार में विनम्रता गौंण एवं अहंकार का बोलबाला हो, वह व्यक्ति अपने बाकी गुणों का भी मूल्य खो देता है। अतः हमें अपने मन, कर्म एवं वचन से विनम्र बनने का प्रयास करना चाहिए का प्रयास करना चाहिए।

4 ) रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि इठलेहैं लोग सब, बाटी लेहैं न कोय।।


कहा जाता है कि अपना दुख दूसरों के साथ बांटने से मनुष्य का कष्ट कम हो जाता है। ऐसा तभी संभव है जब सुनने वाला व्यक्ति वास्तव में आपका हितेषी हो, तथा आपके कष्ट को समझे। परंतु कटु वास्तविकता यह है कि लोग सामने वाले व्यक्ति की पीड़ा को समझने का दिखावा करते हैं, किंतु बाद में उनका उपहास करते हैं।

यही संदेश देने के लिए रहीम जी ने अपनी इस दोहे में कहा है कि हे मनुष्य ! अपने मन की व्यथा, कष्ट को अपने मन में ही रखनी चाहिए। चाहे आप कितने भी कष्ट में क्यों न हो, किंतु अपनी पीड़ा को अपने मन में ही गोपनीय रखो, उसे किसी के सामने प्रकट ना करो, क्योंकि व्यक्ति जिन पर विश्वास कर अपने दुख को साझा करता है, वही व्यक्ति उनके पीठ पीछे उनकी स्थिति का हास परिहास करते हैं।

सभी आपके कष्ट को समझने का दिखावा करते हैं, किंतु वास्तव में आपके दुख को बांटने वाला कोई नहीं होता । अतः अपने कष्ट का परिहास होता देख और अधिक पीड़ा उठाने से अच्छा है कि स्वयं अपने कष्ट को सहा जाए एवं उसे केवल अपने मन तक ही सीमित रखा जाए।

5 ) राम ना जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहु, होत आपने हाथ ।।


प्रस्तुत दोहे में कविवर ने रामायण के एक प्रसंग की चर्चा करते हुए यह संदेश दिया है कि होनी को कोई नहीं टाल सकता। अतः भविष्य के बारे में चिंतित होना व्यर्थ है। यह प्रसंग तब का है जब माता सीता पंचवटी के प्रांगण में स्वर्ण चर्म वाले मृग को विचरण करता देख उसकी अद्भुत सुंदरता पर मोहित हो गई थी। तब उन्होंने श्रीराम से उस मृग को ले आने की इच्छा व्यक्त की।

माता सीता की इच्छा पूर्ति हेतु भगवान राम मृग का आखेट करने उसके पीछे चले गए। वह मृग वास्तव में मारीच था, जिसने माया से मृग का वेश बना लिया था। श्री राम के उसके पीछे जाने के बाद ही माता सीता रावण द्वारा अपहरण कर ली गई थी।

इसी पर रहीम जी कहते हैं कि यदि होनी अपने हाथों में होती, तो राम कभी हिरण के साथ वन में ना जाते और माता सीता रावण द्वारा ना हरी गई होती।
भगवान होते हुए भी श्रीराम एवं माता सीता के जीवन में यह घटना घटी, क्योंकि जो होना होता है उस पर किसी का भी वश नहीं चलता।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि भविष्य में जो होना है, वह होकर ही रहेगा । नियति को टालने या बदलने की क्षमता किसी में भी नहीं है । अतः जो हो चुका है, जो होने वाला है, उस पर चिंतित होकर कोई लाभ नहीं है। हमें वर्तमान में जीना चाहिए।

6 ) रहिमन जिह्वा बाबरी, कह गई सरग-पताल।
आपु तु कहि भीतर गई, जूती खात कपाल।


प्रस्तुत दोहे में कवि ने वाणी के महत्व को समझाया है। यह मनुष्य की वाणी ही है, जो उससे प्रतिष्ठा दिलाती है, या तो उसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देती है। बिना परिणाम की चिंता किए कुछ भी बोल देने से मनुष्य को विनाशकारी परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। अतः वाणी पर नियंत्रण आवश्यक है ।

यही समझाने के लिए दोहे की प्रथम पंक्ति में रहीम जी ने कहा है कि हे मनुष्य यह जिह्वा बावरी, अर्थात पागल है जो वेग में आकर ना जाने क्या-क्या भली बुरी बातें बोल जाती है। यह पागल जीभ स्वर्ग से पाताल तक की बातें बोल जाती है। इसके द्वारा कही गई बातों से इसका तो कुछ भी नहीं बिगड़ता, क्योंकि सब कुछ कहने के बाद यह स्वयं तो मुंह के भीतर चली जाती है। किंतु इसका हर्जाना सिर को भुगतना पड़ता है जो जीव के कर्मों के फल स्वरूप जूतियां खाता है।

दोहे का भाव यह है कि हमारे द्वारा बोले गए वचनों का परिणाम बाद में हमें भुगतना पड़ सकता है। अतः सदैव नाप - तौल कर, सोच-समझकर ही बोलना चाहिए एवं जितनी आवश्यकता हो कि केवल इतना ही बोलना चाहिए।

7) रहिमन निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय ॥

जीवन यापन के लिए मनुष्य के पास आजीविका का होना अत्यंत आवश्यक है। किंतु व्यक्ति के लिए कमाना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है धन को बचा कर रखना, अर्थात उसका संचय करना।

यही सीख देते हुए रहीम जी ने अपने इस दोहे में कहा है कि मनुष्य पर विपत्ति पड़ने पर उसके द्वारा संचय की गई धन-संपत्ति ही केवल उसकी सहायक होती है। विकट परिस्थितियों में अपने धन के सिवा कोई भी सहायता नहीं करता। जिस प्रकार तालाब के जल के सूख जाने पर जलज, अर्थात कमल भी सूख जाता है।

जल के अभाव में कमल को सूखने से स्वयं सूर्य भी नहीं बचा सकता क्योंकि कमल का जीवन का आधार ही जल है। उसी प्रकार मनुष्य के जीवन यापन का आधार धन है । यदि विपत्ति पड़ी, तो धन के अभाव में उसे किसी की सहायता नहीं प्राप्त होगी। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव धन का संचय करके रखें जो उसे विकट परिस्थितियों से निकालने में सहायक सिद्ध हो।

निष्कर्ष :
तो मित्रों आपने देखा कि किस प्रकार रहीम जी का प्रत्येक दोहा अंत में एक शिक्षा प्रदान करता है। कविवर के हर दोहे में उन्होंने जन सामान्य के लिए एक संदेश प्रतिपादित किया है, जो प्रत्येक मनुष्य को नीति के मार्ग पर चलने के लिए सदैव मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

यह दोहे अत्यंत सरल सहज एवं स्वभाविक भाषा में लिखे गए हैं, ताकि इन दोनों में छुपी शिक्षा को हर कोई आसानी से समझ सके एवं इसे अपने जीवन में लागू कर सके। इन दोहों की यही तो खासियत है, यह देखने में बहुत सामान्य होते हैं किंतु इनमें बहुत बड़ी सीख छुपी होती है। आशा है कविवर की यह दोहे पढ़कर आप इनकी सीख को जीवन के हर कदम पर याद करते रहेंगे एवं खुद को गलत मार्ग पर जाने से रोकेंगे।


अपनी राय पोस्ट करें

ज्यादा से ज्यादा 0/500 शब्दों