आलस्य पर श्लोक अर्थ सहित

आलस्य पर श्लोक अर्थ सहित

  

नमष्कार मित्रों, आज की चर्चा का विषय है "आलस्य" या आलस।

क्या है यह आलस्य?

आलस्य अपनी सुविधा क्षेत्र में रहने की अवस्था है, जहाँ व्यक्ति उद्यम - श्रम आदि के प्रति अनिच्छा व्यक्त करता है। आलस्य करने वाले व्यक्ति आवश्यक कार्यों को करने के प्रति उदासीन बन जाते हैं एवं उन कार्यों को अधूरा ही छोड़ देते हैं।

ऐसे व्यक्ति केवल विभिन्न इच्छाएं एवं आकांक्षाएं रखते हैं, किंतु उन्हें पूर्ण करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। इस आलस्य का परिणाम यह होता है कि वह अपने मनोरथों को कभी पूर्ण नहीं कर पाते एवं जीवन में असफल रह जाते हैं।

आलस्य को यदि मनुष्य के सबसे बड़े दोषों में से एक कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि यह मनुष्य के विचारों पर इस प्रकार हावी हो जाता है कि मनुष्य अपने हित (परिश्रम) को बड़ी आसानी से भुला देता है।

भला आलस कर के कौन सफल हो पाया है ? इतिहास साक्षी है कि दुनिया के सफलतम व्यक्तियों ने सदा अद्वितीय परिश्रम व संघर्ष किया है। जिसने रातों को चैन की नींद में सोते हुए गंवाने के स्थान पर उद्यम किया है, वही सफल हो पाया है।

मित्रों, आलस्य का परिणाम दुख, असंतोष, अपूर्ण इच्छाएं व असफलता है। आपने अनुभव किया होगा कि यदि परीक्षा के समय आप पढ़ने के प्रति उदासीन हो जाते हैं, अर्थात आलस्य करते हैं तो बाद में जाकर आप अपने अंको से संतुष्ट नहीं होते हैं।

तब आप सोचते हैं कि "काश! थोड़ी मेहनत और कर ली होती।" किंतु परिणाम आने के बाद पछताने का कोई लाभ नहीं होता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर विद्यमान इस दोष को नष्ट करे एवं परिश्रमी बनें।

आलस्य का त्याग करने के लिए व्यक्ति को अपने मन में दृढ़ निश्चय करना चाहिए। तभी जाकर हम स्वयं को अनुशासित कर पाएंगे एवं इस आलस्य से छुटकारा पा पाएंगे।

इसी कड़ी में हम आपकी मदद करने के लिए आज के लेख में संस्कृत भाषा में लिखे गए कुछ शिक्षाप्रद श्लोक लेकर आए हैं, जो आपको यह समझाते हैं कि किस प्रकार आलस्य मनुष्य का शत्रु है एवं आलस्य करने वाले मनुष्य को किन-किन प्रकार के कष्टों को झेलना पड़ता है।

इन श्लोकों को पढ़कर हमारे पाठक आलस्य न करने के प्रति अवश्य सजग हो जाएंगे। तो आइए, बिना देर किये जानते हैं इन सभी श्लोक एवं उनके अर्थ को :

1 ) अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥

प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है कि आलस्य करने वाले को शिक्षा कैसे प्राप्त होगी? जो आलस्य करता है उसे विद्या नहीं मिलती, और जिसके पास विद्या नहीं है उसके पास धन कहां?

जिसके पास धन नहीं है, अर्थात जो निर्धन है उसके पास मित्र कहां ? निर्धन व्यक्ति मित्र हीन रह जाता है और जिसका कोई मित्र न हो, उसे अमित्र को भला सुख कहाँ?

इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि विद्या ही मनुष्य के जीवन में सभी सुखों की प्राप्ति एवं सफलता का आधार है। किंतु विद्या केवल उसी को मिलती है, जो आलस्य का त्याग कर कठोर श्रम करता है।

आलस्य करने वाला मनुष्य जीवन में हर प्रकार के सुख से वंचित रह जाता है। आलस्य का त्याग कर ही विद्या प्राप्ति संभव है। विद्या का प्रयोग कर ही व्यक्ति धन का संचय कर पाता है। धन - संपदा होने पर ही मित्र बनते हैं और मित्रों द्वारा ही व्यक्ति जीवन में सुख पाता है।

अतः आलस्य का त्याग करना अवश्यंभावी रूप से आवश्यक है, अन्यथा हमारा जीवन दुख, कठिनाई एवं कष्टों से भर जाएगा।

2 ) आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।

प्रस्तुत श्लोक कहता है कि मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है। आलस्य के समान मनुष्य का और कोई शत्रु नहीं है। इसी प्रकार उद्यम, अर्थात परिश्रम के समान मनुष्य का अन्य कोई मित्र नहीं है क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता।

मित्रों, हर व्यक्ति की कुछ इच्छाएं एवं आकांक्षाएं होती हैं, जिन्हें पूर्ण करके वह सुखी जीवन व्यतीत करना चाहता है। किंतु यह इच्छाएं तब ही पूरी होती हैं, जब इनकी पूर्ति करने के लिए प्रयास किया जाए।

जो व्यक्ति कठोर परिश्रम करते हैं, वही अपनी हर इच्छा को साकार करने में सक्षम होते हैं। अतः वे सदैव सुखी रहते हैं। किंतु जो व्यक्ति केवल कामना रखते हैं किंतु उन्हें पूर्ण करने के लिए श्रम करने के स्थान पर आलस्य से घिरे रहते हैं, ऐसे व्यक्ति जीवन में सदैव असफलता पाते हैं एवं कभी सुखी नहीं रह पाते।

अतः इस श्लोक में आलस्य को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कहा गया है। हमें समझना चाहिए कि हमारे सबसे बड़े शत्रु का वास हमारे शरीर के ही अंदर है एवं हमारा सबसे बड़ा मित्र भी हमारे अंदर ही विद्यमान है।

संसार में और कोई भी व्यक्ति या वस्तु हमें इतनी हानि नहीं पहुंचा सकता जितना हमारे शरीर के अंदर रहकर आलस्य पहुंचाता है। अतः आलस्य का त्याग कर देना ही सर्वोचित है।

3 ) यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।

प्रस्तुत श्लोक में रथ के दो पहियों का उदाहरण लेकर व्यक्ति के जीवन में श्रम के महत्व को समझाया गया है। रथ का सहारा उसके दो पहिए होते हैं। उनकी अनुपस्थिति में रथ का कोई काम नहीं रह जाता और यदि दोनों पहियों में से केवल एक ही पहिया रथ से जुड़ा हो, तो भी रथ नहीं चल पाता।

श्लोक की पहली पंक्ति में यही कहा गया है कि जिस प्रकार केवल एक पहिए के सहारे पर रथ नहीं चल सकता, उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ किए भाग्य सिद्ध नहीं होता।

अर्थात जीवन रूपी रथ को चलाने के लिए पुरुषार्थ रूपी पहिए का होना अति आवश्यक है। परिश्रम किए बिना कुछ भी नहीं मिलता। इस संसार में हर छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी चीज को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना पड़ता है, श्रम करना पड़ता है। अतः यदि हम आलस्य का आलिंगन कर केवल बैठे रहेंगे तो हमें जीवन में सफलता कभी नहीं मिलेगी। अतः आलस्य का त्याग करें एवं पुरुषार्थ करें।

4 ) द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।

प्रस्तुत श्लोक में दो प्रकार के मनुष्यों की बात की गई है। कहा गया है कि इस संसार में दो तरह के लोग हैं जिनके गले में बड़ी सी शीला, अर्थात पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए। इन दो श्रेणि के लोग इस संसार में रहने के लायक नहीं है।

इन दो लोगों में से एक वह हैं, जो धनवान होते हुए भी दान - पुण्य नहीं करते, और दूसरे वह हैं जो गरीब होते हुए भी अतपस्वि हैं, अर्थात कठोर परिश्रम नहीं करते हैं। ऐसे आलसी एवं अधर्मी पुरुषों को कठोर से कठोर दंड भोगने योग्य कहा गया है। क्योंकि दान न करने एवं श्रम न करने, इन दोनों ही कर्मों से व्यक्ति नीच बनता है।

गरीब व्यक्ति का कर्म है कि वह अपनी गरीबी को दूर करने के लिए कठोर परिश्रम एवं हर संभव प्रयास करे, न कि दूसरों से मांग कर जीवन यापन करें। और जिसके पास पर्याप्त धन- संपदा व ऐश्वर्य है, वह यदि परमार्थ न करे तो उससे अधिक अधमी व्यक्ति और कोई नहीं हो सकता। ऐसे आलसी और स्वार्थी व्यक्ति संसार में बोझ के समान हैं।

इस श्लोक से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि दान मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है एवं पुरुषार्थ उसकी सबसे बड़ी शक्ति। यदि मनुष्य के पास कुछ भी न हो, तब भी वह पुरुषार्थ द्वारा सब कुछ हासिल कर सकता है। अतः आलसी न बनें।

5 ) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।

प्रस्तुत श्लोक की प्रथम पंक्ति का आशय है कि उद्यम, अर्थात श्रम से ही कार्य सिद्ध होते हैं। केवल मनोरथ मात्र से कार्यों की सिद्धि नहीं होती। प्रस्तुत प्रकरण को समझाने के लिए श्लोक में सिंह का उदाहरण दिया गया है।

जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुंह में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करता, अर्थात सिंह को अपनी क्षुधा शांत करने के लिए मृग को ढूंढ कर उसका शिकार करना पड़ता है, उसी प्रकार केवल इच्छा रख लेने से फल की प्राप्ति नहीं होती। अपने कार्यों को सिद्ध करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।

प्रस्तुत दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि किसी वस्तु को पाने की केवल इच्छा करने से वह वस्तु हमें प्राप्त नहीं होती। यदि हमें उस वस्तु को पाना है तो हमें कठोर परिश्रम करना ही होगा। बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलता।

अपने मनोरथ को साकार करने के लिए पुरुषार्थ अति आवश्यक है। ऐसे में यदि व्यक्ति आलस्य में पड़ कर पुरुषार्थ ना करे, तो उसकी इच्छाएं सदैव अधूरी ही रह जाएंगी।

6) योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥

प्रस्तुत श्लोक में चींटी एवं गरुड़ की चर्चा की गई है। श्लोक की प्रथम पंक्ति का आशय यह है कि एक छोटी सी पीपलीका, अर्थात चींटी यदि चलना प्रारंभ कर देती है, तो वह धीरे - धीरे चल कर सहस्त्र योजन अर्थात हज़ार मील की दूरी तक चली जाती है। किंतु यदि एक विशालकाय गरूड़ अपने स्थान से नहीं हिलता, तो वह एक पद, यानी कि एक कदम भी नहीं चल पाता है।

चींटी का शरीर अति सूक्ष्म होता है, उसकी शारीरिक क्षमता व बल बहुत कम है। किंतु गरुड़ आकार में पीपीलिका से बहुत अधिक विशाल और शारीरिक क्षमता में चींटी से कहीं अधिक बलवान होता है।

चींटी की तुलना में वह आधे से भी कम समय में हजार मीलों की दूरी तय कर सकता है, किंतु आलस्य में पड़कर वह बैठा ही रह जाता है और एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता। वही चींटी जो अति परिश्रमी है, वह अपनी कमजोरियों के बावजूद श्रम के बल पर गरुड़ से अधिक आगे निकल जाती है। अतः सफल होती है।

इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कार्य में सफलता पाने के लिए उसे प्रारंभ करना सबसे ज़रूरी है। और कार्य को प्रारंभ करने के लिए आलस्य का त्याग करना आवश्यक है।

यदि व्यक्ति के पास बल, क्षमता, धन, एवं कार्य सिद्धि के लिए हर पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो, किंतु फिर भी आलस्य के कारन वह कार्य प्रारंभ ही ना करे, तो वह व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।

वहीं दूसरी ओर चींटी की ही भांति यदि व्यक्ति के पास लक्ष्य पूर्ति हेतु कम अथवा कोई भी संसाधन न हो, न ही क्षमता हो, न धन हो, तब भी व्यक्ति कठोर परिश्रम द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर जीवन में सफल हो सकता है।

अतः सफलता पाने का केवल एक ही मार्ग है, और वह है कठोर परिश्रम। गुणवान व्यक्ति भी आलस्य में पड़कर यदि अपने गुणों का इस्तेमाल ना करें तो उसके सभी गुण बेकार चले जाते हैं। किंतु असक्षम व्यक्ति भी यदि कठोर परिश्रम करे, तो वह गुनवान बन सकता है।

7 ) सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न पश्यति।
सन्तुष्टश्चरतो नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्॥

प्रस्तुत श्लोक का आशय यह है कि समझदार एवं बुद्धिमान व्यक्ति को एक गधे में विद्यमान तीन विशेष गुणों को सीखना चाहिए। गधे के वह गुण ऐसे हैं, जिनका अनुसरण कर व्यक्ति जीवन में सदैव सुखी रह सकता है।

गधे में मौजूद वह तीन गुण निम्नलिखित हैं -

पहला, गधा अत्यधिक थक जाने के बाद भी भार का वहन करता रहता है। अर्थात, शक्ति न होने पर भी अपनी पीठ पर भारी से भारी बोझ सहता रहता है और निरंतर चलता रहता है।

दूसरा गुण यह है कि गधा हर दिन, हर समय अपने काम में लगा रहता है। वह शीत ऋतु की सर्दी भी नहीं देखता। सर्दी हो या गर्मी, वह हर परिस्थिति में अपने कार्य में संलग्न रहता है।

इसी प्रकार गधे का तीसरा विशेष गुण है कि वह जहां भी जाता है, वहीं अपनी क्षुधा शांत कर लेता है। उसे खाने को जो भी अच्छा या बुरा मिलता है, वह उसे संतुष्ट होकर चरता है और सदैव तृप्त रहता है। बुद्धिमान व्यक्ति को इन्हीं तीनों गुणों का अनुसरण करना चाहिए।

जिस प्रकार शिथिल होने के बावजूद भी गधा भार ढोना नहीं छोड़ता, उसी प्रकार मनुष्य को भी आलस्य का त्याग कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयास और परिश्रम करना चाहिए।

गधे की ही भांति लक्ष्य प्राप्ति में सर्दी, गर्मी, षम - विषम परिस्थितियों के कारण रुकना नहीं चाहिए। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, हमें अपने लक्ष्य में सदैव संलग्न रहना चाहिए। जिस प्रकार गधा कहीं भी चर कर संतुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य को अपने पास उपलब्ध सीमित संसाधनों में संतोष करना चाहिए।

निष्कर्ष :

तो यह थे वह श्लोक। आशा है इन्हें पढ़कर आपको आलस्य का त्याग करने व कठोर परिश्रम की ओर कदम बढ़ाने की प्रेरणा मिली होगी। मित्रों, आज इन श्लोकों का अध्ययन कर हमें यह पता चलता है कि अधिक सोने की इच्छा, आराम करने की इच्छा, सुख सुविधाओं एवं ऐश्वर्य के बीच रहने की इच्छा, यह सभी आलस्य के लक्षण हैं।

हमें इन लक्षणों को पहचानना होगा एवं इन पर नियंत्रित स्थापित करना होगा। तभी जाकर हम आलस्य रूपी इस शत्रु को पराजित कर पाएंगे। इन श्लोकों के रचयिताओं का हम जितना धन्यवाद करें, उतना कम है क्योंकि उन्होंने जनसामान्य तक बहुत महत्वपूर्ण संदेश पहुंचाया है, जिससे अनंत समय तक हम और आप लाभांवित होते रहेंगे। इन सभी श्लोकों के निर्माण का उद्देश्य यही है कि मानव आलस्य रूपी दुर्गण की बुराइयों को समझ सके और इसे त्याग कर उद्यमी बने।


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