अहंकार पर कबीरदास जी के दोहे

अहंकार पर कबीरदास जी के दोहे

  

आज की चर्चा का विषय है अहंकार, जिसे अभिमान, घमंड, गर्व एवं अहम जैसे नामों से जाना जाता है। अहंकार वह भावना है जहां व्यक्ति अपनी धन, संपत्ति , प्रतिष्ठा एवं अपने द्वारा संचय की गई विषय वस्तुओं पर मद करने लगता है। अहंकारी व्यक्ति खुद को सबसे श्रेष्ठ एवं अन्य व्यक्तियों को नीची दृष्टि से देखता है।

इससे वह केवल अपने अपनों को ही अपमानित नहीं करता, अपितु वह खुद भी विनाश के मार्ग पर अग्रसर होता रहता है। अतः हमें आवश्यकता है कि अहंकार रूपी इस शत्रु से सदैव बचकर रहें। यही सीख महापुरुषों ने भी दी है। प्रस्तुत लेख में हम कबीर दास जी के उन दोहों का संग्रह लेकर आए हैं, जहां उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकरणों द्वारा अहंकार से दूर रहने की बात समझाई है।

आइए जानते हैं कि कबीर दास जी ने अपने दोहों में क्या-क्या कहा है :

1 ) मैं मैं बड़ी बलाई है, सके निकल तो निकले भाग ।
कहे कबीर कब लग रहे, रुई लपेटी आग।।


व्यक्ति का अहम उसकी उन्नति के मार्ग पर बहुत बड़ी बाधा है। अहंकार में चूर व्यक्ति को उसका घमंड बहुत प्यारा होता है, किंतु वह यह नहीं जान पाता कि यही अहम उसे धीरे-धीरे विनाश की ओर अग्रसर करता जा रहा है। कवि ने यही समझाने के लिए प्रस्तुत दोहे में बताया है कि अहंकार व्यक्ति के लिए कितना भयावह है। दोहे की प्रथम पंक्ति में कबीरदास जी कहते हैं कि यह "मैं" - बहुत बड़ी बला है।

यहां "मैं" का तात्पर्य व्यक्ति के अहंकार से है। कबीर दास जी ने अहंकार को व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी परेशानी बताया है। वह कहते हैं कि हे मनुष्य ! इस अहंकार के चंगुल से निकल सकते हो तो शीघ्र अति शीघ्र निकल कर भाग जाओ। आखिर कब तक रूई को अग्नि में लपेट कर रखा जा सकता है ? रुई और अग्नि का मेल विनाशकारी है। अधिक समय तक रुई अग्नि का ताप नहीं झेल सकती, कुछ समय बाद निश्चय ही यह अग्नि तेजी से रुई को जलाकर खाक कर देगी।

ठीक इसी प्रकार अहंकार रूपी अग्नि व्यक्ति के रुई रूपी तन को जलाकर नष्ट कर देती है। इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अहंकारी व्यक्ति अधिक समय तक विनाश से नहीं बच सकता अतः इस अहंकार जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी त्याग कर देना ही सर्वोचित है।

2 ) बड़े बड़ाई न करे, बड़े न बोले बोल।
हीरा मुख से न कहे, लाख टका मम मोल।।


जो व्यक्ति वास्तव में बड़े होते हैं वह शांत, विनम्र एवं परोपकारी स्वभाव के होते हैं। धनाढ्य व्यक्ति कभी अपनी पद, प्रतिष्ठा का गुणगान नहीं करता। अपनी धन - संपदा, पद की शेखी केवल वही लोग बघारते हैं, जो वास्तव में बड़े नहीं होते अपितु बड़े बनने का केवल दिखावा करते हैं। प्रस्तुत दोहे में कविवर कबीर दास जी ने यही संदेश दिया है और कहा है कि जो सच में धनी, सम्माननीय, एवं प्रतिष्ठित होते हैं, वह अपनी प्रशंसा स्वयं कभी नहीं करते।

वह ना तो अपनी बड़ाई में बड़े-बड़े बातें करते हैं, ना तो अपनी संपत्ति का बखान करते फिरते हैं, ना ही दूसरों की निंदा करते हैं। कबीर दास जी ने सज्जन पुरुषों की इस आचरण की तुलना हीरे से करते हुए कहा है कि जिस प्रकार हीरा अति बहुमूल्य होता है, किंतु वह कभी नहीं कहता कि उसका मूल्य लाख टके का है।
उसके गुण, उसके चमक ही उसका मूल्य बताने के लिए पर्याप्त है उसी प्रकार बड़े लोगों का व्यक्तित्व ही उनके बड़प्पन को दर्शाता है।

3 ) कबीर गर्व न कीजिए, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दास, खांखर भया पलास।।


प्रस्तुत दोहे में कवि ने व्यक्ति को यौवन के सुंदर दिनों पर अभिमान ना करने की सलाह दी है। दोहे की प्रथम पंक्ति में कवि कबीर दास जी का कहना है कि हे मनुष्य ! अपने इस सुंदर रूप - रंग की आशा में गर्व ना करो। जिस जवानी के मद में तुम इतरा रहे हो, वह ज्यादा समय तुम्हारे पास नहीं है।अर्थात यह स्थाई नहीं है।

पलाश के वृक्ष का उदाहरण देते हुए आगे कवि कहते हैं कि पलाश के वृक्ष में केवल वसंत व ग्रीष्म ऋतु में फूल लगते हैं। कुछ समय तक वृक्ष यीशु के सुंदर मनमोहक फूलों से हरा भरा लगा रहता है, जिसकी सुंदरता देखने के लिए सभी आतुर रहते हैं । किंतु ऋतु के खत्म होते ही सभी फूल झर कर गिर जाते हैं, और पलाश का पेड़ झार झंझार की तरह बन जाता है, जिसे देखने की इच्छा किसी को नहीं होती।


अतः पलाश के वृक्ष की सुंदरता केवल कुछ दिनों की होती है, साल के शेष समय वह जीर्ण शीर्ण अवस्था में रहता है। तो मित्रों, प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कवि ने समझाया है कि जवानी जीवन का सबसे सुंदर चरण है। युवावस्था में व्यक्ति के पास सुंदर रूप व काया, शक्तिशाली व सक्षम शरीर, सक्रियता, तेज दिमाग होते हैं जिसके कारण वह सबके बीच लोकप्रिय एवं वांछनीय होता है।


जवानी में व्यक्ति दर्शनीय होता है एवं सब तरह के सुख - ऐश्वर्य का भोग पाता है। इसी कारणवश युवावस्था में मनुष्य को अपने रूप पर बड़ा अभिमान होता है।
वह स्वयं को बाकियों से अधिक श्रेष्ठ एवं सुंदर समझने लगता है, किंतु वह भूल जाता है कि यह यौवन केवल कुछ समय का है। युवावस्था के बाद उसे वृद्धावस्था में प्रवेश करना ही होगा, जहां उसका यह सुंदर रूप, शारीरिक शक्ति, बुद्धिमता सभी जीर्ण शीर्ण हो जाएंगी । फिर इस पर कैसा अभिमान? जो आज है, किंतु कल नहीं रहेगा।

4 ) तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान।।


प्रस्तुत दोहे में कविवर कबीर दास जी ने बताया है कि किस प्रकार अभिमान मनुष्य के सभी गुणों का नाश कर उसे ईश्वर से दूर कर देता है। वह कहते हैं कि तिमिर (अंधकार), रवि यानी सूर्य को देखते ही गायब हो जाता है। अर्थात, सूर्योदय होते ही अंधकार खत्म हो जाया करता है। उसी तरह गुरु के ज्ञान एवं शिक्षा से कुमती, अर्थात कुबुद्धि नष्ट हो जाती है।

कबीर ने इस नियम को मानव जीवन पर लागू किया है और कहा है कि जिस प्रकार सूर्य अंधकार एवं गुरु को बुद्धि को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार अत्यधिक लोभ - लालच करने से मनुष्य की सुमति, यानी की अच्छी बुद्धि नष्ट हो जाती है, एवं अभिमान से भक्ति का विनाश हो जाता है, और भक्ति व्यक्ति ईश्वर से दूर हो जाता है। इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अभिमान, अहंकार भगवान की भक्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। ईश्वर को हृदय में बसाने के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है।

5 ) पाकी खेती देख कर, गर्व किया किसान।
अबहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान।।


यह मनुष्य के स्वभाव में निहित होता है कि वह थोड़ी सी सफलता पाते ही अहंकार करने लग जाता है। इस अहंकार के कारण वह अपने आगे के प्रयासों पर अधिक ध्यान नहीं देता है और अंततः असफल होता है। ऐसा ना करने की चेतावनी देते हुए प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि खेत में पकी, लहलाती फसल देखकर किसान बहुत प्रसन्न होता है और उसे खुद पर गर्व होने लग जाता है।

फसल से मिलने वाला लाभ उसमें अभिमान की भावना पैदा करता है। लेकिन कबीर कहते हैं कि अभी किसान को सफलता नहीं मिली है। अभी फसल के लाभ मिलने में बहुत झमेले शेष हैं। दोहे में झोला शब्द का अर्थ परेशानी या झमेला है। जब फसल भली-भांति घर पहुंच जाए, तभी समझना चाहिए की सफलता मिल गई है। फसल काटकर घर तक ले जाने में बहुत परेशानियां बाकी होती है।

यदि बीच में ही वर्षा हो गई, अथवा कीट पतंगे फसल को खा गए तो यह सारी सफलता धरी की धरी रह जाएगी। इसीलिए कवि कहते हैं कि जब तक फसल सही सलामत घर ना आ जाए, तब तक सफलता नहीं माननी चाहिए। इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि अंजाम तक पहुंचे बिना थोड़ी सी सफलता को अंतिम मंज़िल समझकर व्यक्ति को अभिमान नहीं करना चाहिए।

निष्कर्ष :
तो देखा अपने मित्रों, कबीर दास जी ने अपने इन सभी दोहों में कितने सरल एवं सहज उदाहरणों की सहायता से हम तक यह संदेश पहुंचाया है कि अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अहंकारी व्यक्ति धीरे-धीरे अपना सब कुछ खो देता है। वह अपनी इसी अहम के कारण अपने सभी संबंधों, अपनी प्रतिष्ठा, मान - सम्मान, मित्र, हितेषी, धन - संपदा, सभी से हाथ धो बैठता है।

इसीलिए तो कवि ने अहंकार को अग्नि के समान बताया है, जो मनुष्य को अपने ताप से भस्म कर देती है। साथ ही यह भी समझाया है कि जो व्यक्ति वास्तव में बड़ा होता है, वह अहंकार जैसे दोषों को अपने से दूर ही रखता है। हमें भी अपनी उपलब्धियों, अपने पद एवं प्रतिष्ठा पर घमंड नहीं करना चाहिए एवं सदैव शील एवं परोपकारी बनना चाहिए।


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