अभिमान पर अनमोल दोहे अर्थ सहित

अभिमान पर अनमोल दोहे अर्थ सहित

  

मित्रों, आज के लेख में आप "अभिमान" पर आधारित दोहे पढ़ेंगे, जो हमें अहंकार न करने की सीख देते हैं। अभिमान खुद को सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य व्यक्तियों को नीचा समझने की भावना है। इससे अहम, अहंकार, अभिमान, घमंड, गर्व इत्यादि जैसे कई और नामों से जाना जाता है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि धनवान हो जाने पर, अथवा कुछ पा लेने पर, अथवा किसी ऊंचे पद पर पहुंच जाने के बाद वह अहंकार करने लग जाता है।

अहंकारी व्यक्ति को अपना यहां हम बहुत प्रिय होता है, किंतु यह अहंकार इतना घातक है कि इससे व्यक्ति दिन प्रतिदिन पतन की ओर अग्रसर होता है एवं अपने आसपास के सभी लोगों की भी हानि पहुंचाता है।

शास्त्रों में बिल्कुल सही कहा गया है कि अहंकार मनुष्य का शत्रु है। यह शत्रु दिखाई नहीं देता, किंतु हमें पूरी तरह बर्बाद कर देता है। मनुष्य को यह सत्य कभी नहीं भूलना चाहिए कि एक दिन सभी को मृत्यु को प्राप्त होना है। अतः कोई भी इस संसार में इतना शक्तिशाली नहीं है जिसमें मृत्यु को टाल सकने की शक्ति हो।

इसीलिए खुद को सर्वशक्तिमान एवं सर्वश्रेष्ठ समझना हमारी बहुत बड़ी भूल है। सर्वश्रेष्ठ तो वह ईश्वर है जिसने हमें एवं इस संसार को बनाया है। अतः यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि हम अहंकार रूपी अपने इस शत्रु को पहचानें एवं तुरंत ही इसे पराजित करें। तभी जाकर हम एक अच्छे मनुष्य बन पाएंगे एवं मानवता की रक्षा हो पाएगी। याद रखें, विनम्र मनुष्य हर स्थान पर मान - सम्मान एवं प्रेम पाता है किंतु अहंकारी व्यक्ति को सबसे धिक्कार ही मिलती है।

इसीलिए आज के इस लेख में हमने उन दोनों को शामिल किया है जो आपको अहंकार का त्याग कर विनम्रता का आलिंगन करने में मदद करेंगे :

1 ) आखिर यह तन ख़ाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिले सबूरी में।।

इस दोहे में यह संदेश दिया गया है कि व्यक्ति अपने द्वारा संचय की गयी धन - संपदा एवं वैभव पर बहुत घमंड करता है। किंतु उसका यह घमंड व्यर्थ है क्योंकि जिस काया पर वह इतना अभिमान करता है, वह एक दिन नष्ट हो जाएगी और उसका सारा धन पड़ा रह जाएगा। यही समझाने के लिए कवि कबीर दास जी दोहे की प्रथम पंक्ति में कहते हैं कि - हे मानव ! अंत में यह तन, तेरा यह शरीर खाक में मिल जाएगा। अर्थात इस देह की मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद यह शरीर मिट्टी में मिल जाएगा।

तो जब तुझे मिट्टी में मिलना है, तो घमंड में कहां घूम रहा है? तेरी भी वही दशा होने वाली है, जो सबकी होती है । तो फिर तू किस गुरुर में चूर है ? तुझे किस बात का अभिमान है ? कबीरदास जी आगे कहते हैं कि हे साधु! साहेब अर्थात ईश्वर संतोष से ही मिलते हैं। अहंकार को धारण कर के तुम ईश्वर को कभी नहीं पा सकोगे। संतोष करो, विनम्र बनो। तब ही ईश्वर मिलेंगे क्योंकि जिस दिन तुम्हारी मृत्यु होगी, उस दिन यह धन वैभव कुछ काम नहीं आएंगे। केवल ईश्वर ही काम आएंगे।

2 ) ऊँचा पानी ना टिके, नीचा ही ठहराय।
नीचा होय तो भारी पिये, ऊँचा प्यासा रह जाय।।

इस दोहे में कविवर ने यह सीख दी है कि मन में अहंकार रखकर व्यक्ति कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान की प्राप्ति सहज भाव से ही संभव है। यही समझाने के लिए इस दोहे में उन्होंने ऊंचाई की तुलना अहंकार से एवं जल की तुलना ज्ञान से करते हुए कहा है कि जल का स्वाभाविक प्रवाह नीचे की ओर होता है। ऊंचाई पर पानी कभी नहीं ठहरता।

वह सदैव नीचे की तरफ आ जाता है और वहीं ठहरता है। जो मनुष्य नीचे रहते हैं, वह जी भर कर पानी पीते हैं एवं अपनी प्यास बुझाते हैं। किंतु ऊंचाई पर रहने वाले प्राणी प्यासे ही रह जाते हैं क्योंकि पानी ऊंचाई पर नहीं, केवल नीचे ही उपलब्ध हो सकता है।

यहां ऊंचाई का अर्थ है अहंकार। जिस प्रकार ऊंचाई पर रहकर पानी की आशा रखने वालों की प्यास कभी नहीं बुझती, ठीक उसी प्रकार अहंकार, अभिमान में रहकर व्यक्ति कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

प्यास बुझाने के लिए ऊपर उड़ रहे जीवों को गहराई में आना ही पड़ता है । अर्थात ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अहंकार का त्याग करना आवश्यक है क्योंकि गुरु के समक्ष झुक कर, विनम्र होकर ही ज्ञान मिलता है।

यदि ऐसा न करें तो व्यक्ति ज्ञान से सदैव वंचित रह जाएगा। इस दोहे से हमें यह सीख मिलेगी ज्ञानरूपी पानी केवल नीचे धरती पर ही मिलता है, जिसे झुककर ग्रहण किया जा सकता है। अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए हमें अपने स्वभाव में विनम्रता लानी होगी।

3 ) ऊँचै कुल के कारने, बंस बाँध्यो हंकार।
राम भजन हृदय नहि, जायो सब परिवार।।

जो अपने ऊंचे कुल में जन्म लेने पर अभिमान करते हैं, वह विनाश को प्राप्त होते हैं। यही समझाने के लिए कवि ने इस दोहे की रचना की है। प्रस्तुत दोहे में बांस के वृक्ष की चर्चा की गई है। बांस के वृक्ष अत्यंत ऊंचे होते हैं। उनकी ऊंचाई के कारण ही उन्हें एक साथ बांधकर रखा जाता है, ताकि वह सीधे खड़े रह सकें।

कवि ने इसी बांस के वृक्ष में मानवीकरण करके बांस की तुलना मनुष्य से की है और कहा है कि ऊंचे कुल एवं वंश से होने के कारण बास में घमंड आ जाता है।वह अपने इसी घमंड की अकड़ में बंधे हुए रहते हैं एवं उनके हृदय में राम अर्थात ईश्वर की भक्ति नहीं होती है। बल्कि भक्ति का स्थान अहंकार ने ले लिया होता है।

अतः बांस में जब रगड़ उत्पन्न होती है और यदि उस से आग पैदा हो जाता है, तो वह पूरे परिवार अर्थात सभी बांस को जलाकर नष्ट कर देती है। इसी प्रकार अपने कुल पर अभिमान करने वाले और ईश्वर का ध्यान ना करने वाले मनुष्य के कुल का विनाश हो जाता है। प्रस्तुत दोहे से हमें यह सीख मिली यह अहंकार केवल हमारे लिए ही नहीं, बल्कि हमारे संबंधियों के लिए भी विनाशकारी सिद्ध होता है। अतः इसका त्याग कर देना ही सर्वोत्तम है।

4 ) पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान।
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान।।

ज्ञान प्राप्त करना व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है। किंतु जब ज्ञानी व्यक्ति के अंदर अहंकार जन्म ले लेता है, तब व्यक्ति का ज्ञान भी उसके कुछ काम नहीं आता और व्यक्ति को एक क्षण की भी शांति नहीं मिलती।

इसी संदेश के साथ दोहे की प्रथम पंक्ति में कवि कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान मिल जाने पर यदि व्यक्ति के अंदर अहंकार आ जाए तो व्यक्ति रोगी के समान हो जाता है। अर्थात अनेक पुस्तकें, ग्रंथ आदि पढ़ते-पढ़ते कई लोग रोगी बन गए। क्योंकि उनके भीतर ज्ञानी होने का अभिमान हो गया और यह घमंड बहुत बढ़ गया।

अहंकार के कारण ऐसे व्यक्तियों के मन में तृष्णा, महत्वाकांक्षाएं अपने पैर पसारने लगती हैं एवं व्यक्ति इन्हें पूर्ण करने की कामना की अग्नि में जलता रहता है I यह अग्नि पूरे संसार जितनी ताप पैदा करती है जिसके कारण व्यक्ति भी शांत नहीं रह पाता। उसका चित्त सदैव अशांत रहता है।

5 ) कबीरा गर्व न कीजिए, ऊँचा देखि आवास।
काल परै भुइयां लेटना, उपर जमती घास।।

इस दोहे में कबीर दास जी ने ऐसे लोगों की तरफ इंगित किया है जो अपनी धन - संपत्ति पर बहुत गुरूर करते हैं। उनके थॉट पर उन्हें बड़ा गुरूर होता है। किंतु कबीर दास जी बताते हैं कि यह सब व्यर्थ है। कबीरदास जी कहते हैं कि हे मानव! अपना यह ऊंचा आवास देखकर, अपनी यह धन-संपत्ति देखकर गर्व ना करो। समय बीत जाएगा और अंत समय आने पर तुम्हें भुइयां, अर्थात जमीन पर लेटना होगा।

जिसके ऊपर घास उग आएगी। अर्थात समय पूरा हो जाने पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती है एवं वह अपना आलीशान आवास छोड़ कर जमीन पर अर्थात चिता पर लेट जाता है। बाद में जिसके उपर घास उग आती है। अतः धन, वैभव, मकान, कुछ भी इंसान के काम नहीं आता, क्योंकि जब वह इस संसार को छोड़कर जाता है, तब वह अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता । इसीलिए इन सभी सांसारिक विषय वस्तु पर घमंड करना मूर्खता है। हमें अपनी सच्चाई को कभी नहीं भूलना चाहिए।

6 ) बड़ अधिकार दच्छ जब पावा, अति अभिमानु हृदय तब आवा।
नहि कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं।।

प्रस्तुत दोहे की रचना महाकवि तुलसीदास जी द्वारा की गई है। उन्होंने प्रजापति दक्ष का उदाहरण देते हुए समझाया है कि मनुष्य को जैसे ही कोई ऊंचा पद मिल जाता है, अथवा उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है तो वह अभिमानी हो जाता है। मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को समझाते हुए दोहे की प्रथम पंक्ति में कविवर तुलसीदास जी कहते हैं कि जब ब्रह्मा पुत्र दक्ष को प्रजापति की उपाधि मिली, तब उनके मन में अत्यधिक अभिमान आ गया।

प्रजापति बनने के पूर्व दक्ष स्वभाव से अत्यंत विनम्र थे किंतु जैसे ही उन्हें यह अधिकार मिला, वह इस अधिकार के मद में चूर हो गए। इसी पर कवि कहते हैं कि इस संसार में ऐसे किसी ने जन्म नहीं लिया, जिसे प्रभुता, अर्थात अधिकार मिल जाने पर घमंड ना हुआ हो। प्रस्तुत दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि अधिकार पाते ही मनुष्य खुद को श्रेष्ठ समझने लगता है, जो कि मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। यह अभिमान उसे पतन के मार्ग पर ले जाता है। अतः हमें कभी अपने पद, प्रतिष्ठा एवं धन पर अभिमान नहीं करना चाहिए।

निष्कर्ष :

तो मित्रों, आपने देखा कि किस प्रकार कवियों ने मनुष्य को अहंकार त्याग देने की सीख दी है। अहंकार का मार्ग विनाश का मार्ग है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, हमें अपने मन से इस भावना का त्याग कर देना चाहिए। आशा है महा कवियों के द्वारा दी गई इन सभी शिक्षाओं को हम जीवन पर्यंत स्मरण रखेंगे एवं जीवन में इसे लागू करते रहेंगे।


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